Last Updated on: 16th July 2025, 12:14 pm
ये साली ज़िंदगी (Ye saali zindagi) एक गैंगस्टर अपराध कथा फ़िल्म है जिसे देखते हुए ऐसा नहीं लगा कि आप कुछ रेगुलर सा देख रहे हैं। बंदूक थी, धांय-धांय थी, गेंग्स्टर्स थे, पर यहाँ रामू मार्का किसी डायरेक्टर की जगह सुधीर मिश्रा (Sudhir Mishra) थे, इसीलिये फ़िल्म थोड़ी अलग बन पड़ी। थोड़ी स्टाइलाइज्ड सी। अच्छी एडिटिंग निहायत रफ़ और रॉ कहे जा सकने वाले कैची डायलॉग, इरफ़ान की आम आदमी वाली ख़ास आवाज़ में नेरेशन और कई परतों में बुना हुआ लेयर्ड सा नेरेटिव स्टाइल।
ये सारी बातें फ़िल्म को आमतौर पर बनाई जाने वाली देसी बॉलीवुड मार्का गैंगस्टर फ़िल्मों से अलग पायदान पर खड़ा करने में कामयाब हो सकी हैं। फ़िल्म के बारे में कई क्रिटिक्स ने कहा है कि एक अनकॉम्प्लिकेटेड सी कहानी को कॉम्प्लिकेटेड बनाकर दिखाया गया है जो एक हद तक सच है। फ़िल्म में कई इन्टरनल लौजिक्स काम करते हैं जिनको समझने के चक्कर में आख़री तक फ़िल्म बाँधे रखती है और ज़िंदगी में ज्यादातर चीज़ें हमें अपनी कॉम्प्लिकेटेड फ़ॉर्म में ही अच्छी लगती हैं। इससे उनका अपना रहस्य और उनके प्रति उत्सुकता बनी रहती है।
प्रीति और अरुण की एकतरफ़ा प्रेम कहानी है (Ye saali zindagi)
फ़िल्म में दो समानांतर प्रेम कहानियाँ एक साथ चलती हैं। दोनो ही प्रेम कहानियों में पैसा और पावर अन्त में निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। इन दो अलग-अलग प्रेम कहानियों में एक बात कॉमन है कि दोनों ही आदमी अपने-अपने प्रोफ़ेशन के बीच प्यार को ले आते हैं और जहाँ प्यार प्रोफ़ेशन के बीच आ जाता है चीज़ें अपने आप उलझ जाती हैं, जैसा कि असल ज़िंदगी में होता भी है।
अरुण (Irfan Khan) पेशे से एक भ्रष्ट चार्टर्ड अकाउंटेंट है जो मेहता (Saurabh Shukla) के लिए काम करता है। अरुण, प्रीति (Chitrangada Singh) से प्यार करता है और यह प्रेम कहानी पूरी तरह एकतरफा है। प्रीति का दिल दरअसल श्याम (Vipul Gupta) के लिए धड़कने लगता है, जिससे अरुण ने ही उसकी मुलाक़ात करवाई थी। फिर भी अरुण, प्रीति की मदद के लिये कुछ भी करने को तैयार है, ये जानते हुए कि उसके पूरे सेक्रिफ़ाइस का हांसिल महज एक प्यार भरा ‘थैंक्स’ होगा, पर दिल है कि मानता नहीं।
यहीं तय हो जाता है कि प्यार दरअसल नासमझ होता और खासकर तब जब वो एकतरफा हो तो वो ‘बावड़ी पूछ’ ही हो जाता है।
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पैसा, पावर, लव और लस्ट की उलझन से भरी Ye saali zindagi
दूसरी प्रेमकहानी कुलदीप ( Arunoday Singh) की है। इस कहानी में पेंच की वजह बेहद व्यावसायिक है। एक आदमी जो गैंग्स्टर है, जो कब जेल में बंद हो जाये इसकी कोई गारंटी नहीं है, जिसकी बीवी शांति (Aditi Rao Hydari) इस वजह से असुरक्षित महसूस करती है और ज़िद करती है कि वो ख़ून का खेल छोड़ दे। पर इस ख़ून के खेल में पैसा है और पैसा जीने के लिये ज़रूरी।
यहाँ प्यार के बीच दाख़िल होती है राजनीति। मामला कुछ यूं है कि दिल्ली के गुंडे “बड़े” (Yashpal Singh) को उसके राजनीतिक मालिक वर्मा की नज़र में गिरने के बाद जेल भेज दिया जाता है. जेल में उसके साथ बड़ा ही बुरा सुलूक किया जाता है। लेकिन वहाँ उसे साथ मिलता है एक भ्रष्ट पुलिस अफसर सतबीर (Sushant Singh) का। बड़े के साथ बंद कुलदीप (Arunoday Singh) जेल से छूटकर अपनी पत्नी शांति (Aditi Rao Hydari) के पास लौट जाता है। पैसे और पावर की चाह और हालात उसे फिर से अपराध की ओर खींच लाते हैं।
बड़े का भाई “छोटे” (Prashant Narayanan) वर्मा की बेटी और उसके मंगेतर श्याम (Vipul Gupta) के अपहरण की साजिश रचता है ताकि बड़े को जेल से छुड़ा सके। लेकिन गलती से वह प्रीति का अपहरण कर लेता है। इस बीच अरुण, हवाला से जुड़े सबूत वर्मा के खिलाफ इकट्ठा कर लेता है और उसे ब्लैकमेल करता है। वहीं छोटे की असली योजना सामने आती है—बड़े के बैंक खातों की जानकारी लेकर उसे ही खत्म करना।
कहानी के अंत में एक बड़ा मोड़ आता है जब छोटे अपने ही लोगों से धोखा खाता है और कुलदीप उसे मार देता है। अरुण भी इस संघर्ष में घायल हो जाता है। प्रीति को अंततः समझ आता है कि उसका सच्चा प्यार अरुण ही है, और फिल्म एक इमोशनल मोड़ के साथ खत्म होती है, जहां अपराध, लालच और प्यार की जंग में प्यार की जीत होती है।
इरफ़ान, अरुणोदय का अभिनय तो चित्रांगदा का लुक है ख़ास
फ़िल्म का पहले हाफ़ का पेस तो तेज़ है लेकिन दूसरे हाफ़ में आते-आते एक समय लगने लगता है कि यहाँ दर्शकों को ख़ास तरह की स्पून फ़ीडिंग की जा रही है। लगता है कि फ़िल्म जो दिखाकर समझाने में सफल नहीं हो पा रही वो कहकर समझाने की कोशिश कर रही है। ये कोशिश कभी-कभी नागवार गुजरने लगती है। लेकिन फ़िल्म के डायलॉग इतने कैची हैं कि जब आप स्पूनफ़ीडिंग से परेशान होने लगते हैं, डायलॉग आपको गुदगुदाने लगते हैं। इस तरह नयी-नयी घटनाओं और तथ्यों के भारीपन को फ़िल्म के किरदारों का सेंस ऑफ़ ह्यूमर कम कर देता है।
फ़िल्म में खूब सारी गालियां हैं लेकिन केवल गालियों से एलर्जी के चक्कर में फ़िल्म को छोड़ा नहीं जा सकता। फ़िल्म में जिन लोगों के इर्द-गिर्द है वो असल ज़िंदगी में भी होते तो ऐसे ही होते। ऐसे में इन गालियों और देसी स्लैंग की वजह से फ़िल्म को सस्ता नहीं कहा जा सकता, हाँ उसके किरदारों को आप सस्ता कहेंगे तो ये शायद फ़िल्म के लिये अच्छी बात ही होगी।
इरफ़ान हमेशा की तरह अपनी अभिनय से फ़िल्म में अलग जगह पर खड़े नज़र आते हैं। लेकिन अरुणोदय उनकी प्रतिभा के आगे उन्नीस नज़र नहीं आते। दोनों की ही एक्टिंग सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। सौरभ शुक्ला भी याद रखे जा सकते हैं। चित्रांगदा बेहद सुन्दर लगी हैं, ख़ासकर अपने ग्रे शेड्स में। हल्की सी रौशनी में लिये गये उनके रिएक्शन शॉट्स में वो सेड्यूस करने की हद तक ख़ूबसूरत नज़र आती हैं। लेकिन उनकी संवाद अदायगी उतनी प्रभावित नहीं करती। कई बार बिल्कुल नकली सी लगने लगती है।
फ़िल्म की अच्छी बात ये है कि इरफ़ान जब अपनी कहानी कह रहे होते र्हैं तो वो विलाप सी नहीं लगती। ऐसा नहीं लगता कि कोई इमोश्नल ड्रामा चल रहा है। वहां एक सटायर है, जो अपनी आइरनी में भी हँसाता है। शायद इसी वजह से फ़िल्म एक दिलजले और प्यार में हारे बेबस आदमी की कहानी होने से बच जाती है।
जैसा कि आजकल कई सारी फ़िल्मों के साथ होता है, कि हम सोचते कुछ और हैं, वो होती कुछ और हैं, लेकिन ये साली ज़िंदगी (Ye Sali Zindagi) ऐसी नहीं है। अगर सोच के जाएंगे कि कुछ अलग और हटके देखना है तो भले कहानी में कुछ ख़ास नया ना मिले लेकिन कहानी दिखाने के तरीके में कुछ नया ज़रूर मिल जायेगा।
अच्छी समीक्षा, बधाई…