मानव कौल की फ़िल्म ‘हंसा’ : गांव में शहर की गुपचुप घुसपैठ

Hansa film by Manav Kaul

Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm

हंसा, (Hansa by Manav Kaul) थियेटर और सिनेमा के अदाकार मानव कौल ने जब इस फिल्म को अपनी फेसबुक टाइमलाइन पे शेयर किया तो पता नहीं था कि इस लिंक के ज़रिये मैं उस दुनिया में पहुंचने वाला हूं जिसे मैने बचपनभर जिया है।

  आइएमडीबी बताता है कि ये फिल्म 2012 में रिलीज़ हुई और इसे 8.3 की रेटिंग से भी नवाजता है। यूट्यूब पर शायद ये फिल्म ताज़ा ताज़ा अपलोड की गई है। मेरे लिये उत्तराखंड के परिवेश पर अब तक मानीखेज़ एक ही फिल्म थी- दांये या बांये। न जाने क्यों हंसा पर अब तक नज़र नहीं गई। अपनी तमाम कमियों के बावजूद निसंदेह हंसा दांये या बांये से आगे की फिल्म है।

हंसा में दिखता है नैनीताल के आस-पास का परिवेश

  मानव कौल (Manav Kaul) उस परिवेश को खोज लाते हैं जिसका भूगोल बाॅलिवुड की फिल्मों (Bollywood films) में कई बार आया है लेकिन उसकी आत्मा कभी परदे पर नहीं उतर पाई। मुम्बई की मसाला कहानियों में उत्तराखंड का पहाड़ हमेशा एक टूरिस्ट की नज़र से आया, दांये या बांये ने एक हद तक उसे पहाड़ को जानने वाले की नज़र से दिखाया, लेकिन हंसा उसे एक पहाड़ी की नज़र से आपको दिखाती है।

  ये ‘नैनताल’ के आसपास की कहानी है। जी हां ‘नैनताल’। उस नैनीताल की नहीं जिससे आपका परिचय ‘केरल में गर्मी है नैनीताल से सर्दी भेजो’ या ‘तालों में नैनीताल बाकी सब तलैय्या’ मार्का बाॅलिवुड के गानों ने कराया या फिर आपके उन सैलानी साथियों ने जिनके लिये पहाड़ी होने के मायने ‘शाब जी’ कहने वाले लोगों तक सीमित हैं।

हंसा की कहानी (Story of Hansa by manav kaul)

 हंसा एक ऐसे बच्चे की कहानी है जिसकी दीदी चीकू एक दिन अचानक गायब हो गए अपने पिता को खोजने की कोशिश कर रही है। दरअसल फिल्म हंसा की नहीं चीकू की कहानी है।

   वहां एक शहरी सेठ लोहनी है जो चीकू के पिता के गायब हो जाने के बाद उसकी ज़मीन को हड़पने की फिराक में है क्योंकि उसके पिता ने उधार चुकाना था वो नहीं चुकाया है। एक बज्जू दा हैं जिनकी चीकू पर बुरी नज़र है। वो उसकी मां को मदद करने के नाम पर चीकू का शारीरिक शोषण करना चाहता है।

मां बज्जू दा के दरादे नहीं समझती, चीकू का भाई भी अपनी दीदी को लेकर उसके इरादों से अनजान है लेकिन चीकू सब समझती है। वो अपनी सीमाओं में इसका विराध करती है।

 हंसा की अपनी दुनिया है। वो अपने दोस्त के साथ पेड़ से उसकी टेनिस बाॅल निकालने की मुहिम में जुटा है। इसी बीच वो बज्जू दा के बेटे से पंगे ले लेता है। बज्जू दा बेटा यानि गांव का अमीर लड़का, जिसका बैट और स्टंप है इसलिये नियम भी उसी के हैं।

एक दिन उसके लकी पांच के सिक्का गायब हो जाता है। हंसा ने इसे चुराया है। पूरी फिल्म में उसकी जद्दोजहद यही है कि वो इस सिक्के को वापस करे या ना करे ? वापस करे तो कैसे करे।

हंसा पहाड़ी गांव की पृष्ठभूमि की सरल कहानी है

  फिल्म किसी बड़े ड्रामा का पीछा नहीं करती। उसकी कहानी में कोई चमत्कारी से ट्विस्ट नहीं है। वहां पांच के सिक्के को कैसे खर्च किया जाये इसके लिये दो-तीन रुपये के हिसाब को नोटबुक में दर्ज करते बच्चे हैं, अपने पांच के सिक्के को वापस लेने के लिये पूरे गांव में आरोपी के पीछे भागता गांव का दबंग बच्चा है, अपनी दीदी के मुर्गा बनाने के बाद अपनी गलती के लिये माफी मांगता भाई है।

एक मां है जो गर्भवती है जिसके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो किसी दाई को बुलाकर बच्चा जन पाये। एक पागल है जो ढ़ोलक बजाकर गांव भर में नाचता है और ज़रुरत पड़ने पर दो बच्चों की लड़ाई के बीच में पड़कर अपने चहेते बच्चे की मदद करता है। एक घर है जो एक गरीब परिवार से छिन जाने वाला है और एक बेटी है जो अपने गायब हो गये पिता की खोज में जुटी है।

फिल्म की अच्छी बात वो सन्नाटे हैं जो पहाड़ी गांव की पृष्ठभूमि होने की वजह से अपने आप कहानी का हिस्सा बन जाते हैं। जंगल के बीच से गुजरती संकरी पगडंडी, पगडंडी पर भागते बच्चों के आगे बदहवास भागती बकरियां, अम्मा, बाबू, दीपाल दा जैसे रिश्तों के सम्बोधन, ‘क्या आदमी है यार तू’ जैसे ताने और ‘कौन सी बड़ी बात हो रही है एक्की पीरियड तो छूटेगा’ जैसी मासूम बेपरवाहियां, ‘हगबगा क्या रहा है’ जैसे मुहावरे। फिल्म ठेठ कुमाउनी शब्दावलियों और लहज़ों को एकदम एफर्टलेस होकर कहानी में पिरोती है।

 अगर आपका बचपन पहाड़ में बीता हो तो हंसा (Hansa by manav kaul) को देखते हुए आप स्कूल के बाद खेलने के लिये पहनी उस खाकी पैंट से रिलेट करेंगे, शाम को साम, दस को दश रुपे और किसी को किशी में बदल देने वाली कुमाउनी हिन्दी आपको अपनी सी लगेगी। और अगर आप पहाड़ से नहीं हैं तो आपको पहाड़ की आत्मा को बहुत नज़दीक से देखने का मौका मिलेगा।

  हंसा फिल्म का गांव वो गांव है जहां शहर धीरे-धीरे घुस रहा है। जहां एक मां इतनी सीधी है कि उसे अपनी बेटी के साथ हो रहे शारीरिक शोषण का अंदाज़ा तक नहीं है जबकि ये उसके सामने हो रहा है। जहां एक बंटी है जिसके लिये बाबू अब डैड हो गये हैं और बाबू को अपना अंग्रजी रुपान्तरण हो जाना अखरता है। जहां एक शहरी बाबू है जिसकी गांव की ज़मीन पर बुरी नज़र है।

जादुई यथार्थवाद की झलक

  मानव कौल ने फिल्म को कुछ जगह जादुई यथार्थवाद के करीब ले जाने की कोशिश की है जो कुछ हद तक ही सही पर सफल होती है। कई किरदार फिल्म में असरहीन रह जाते हैं जिनका न होना भी कोई असर शायद नहीं डालता।  

   त्रिमाला अधिकारी ने चीकू के किरदार में ज़बरदस्त अभिनय किया है। एक लड़की जो वल्नरेबल तो है पर इस स्थिति से निपटने का आत्वविश्वास भी उसमें है, जो अपने भाई को मारने की धमकी देने वाले गांव के लड़के को धमका सकती है कि हाथ लगा के तो देख।

वो रुढि़यों को तोड़ती एक गांव की लड़की है जिसे अपनी जिम्मेदारियों और ताकत का भी अहसास है। पहाड़ी गांवों की लड़कियां अपने परिवेश और उसकी असुरक्षाओं को कम उम्र में ही समझने लगती हैं। चीकू उन्हीं पहाड़ी लड़कियों का प्रतिनिधित्व करती है।

   मानव कौल की हंसा आपको माजिद मजीदी या उनके समकक्षों की इरानी फिल्मों की झलक देती है। पहाड़ी परिवेश फिल्मों के लिहाज से अभी पूरी तरह अनछुआ है हंसा या दांये या बांये जैसी फिल्में उस अनछुई आत्मा को बहुत सलीके से छूंती है। उस आत्मा का सिनेमाई परदे पर उतरना अभी बाकी है।

जिस दिन ऐसा हो सकेगा वो भारतीय सिनेमा के लिये अच्छे दिन होंगे। हंसा (Hansa by Manav Kaul) उन सिनेमाई अच्छे दिनों की सम्भावना की एक हल्की सी उम्मीद जगाती है। ऐसे वक्त में जब सबकुछ बाज़ार के लिये बनता है हंसा बाज़ार की चिन्ता किये बगैर दिल से बनाई गई फिल्म है। मानव कौल और उनकी पूरी टीम को इस दुस्साहसी प्रयास के लिये बधाई दी ही जानी चाहिये।

तो यह थी फ़िल्म हंसा की समीक्षा (masaan movie review)। बॉलिवुड की और फ़िल्मों के बारे में जानने के यहाँ क्लिक करें

 

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