Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm
सिटीज़ ऑफ़ स्लीप (Cities of sleep by Shaunak Sen) की समीक्षा
दिल्ली में जिन सड़कों, फ़्लाइओवरों, से आप गुजरते हैं उनके आस-पास रात के वक्त ऐसे लोगों की दुनिया बस जाती जिनकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा सपना है – नींद. इसी नींद की सपनीली कहानी है शौनक सेन की सिटीज़ ऑफ़ स्लीप (Cities of sleep by Shaunak Sen).
उस शहर में जहां रियल एस्टेट का बाज़ार अपने बूम पर हो, तीन कमरों और एक छत के लिए जहां लोग करोड़ रूपये तक खर्च कर देने की हैसियत रखते हों वहां एक बड़ी आबादी ऐसी भी है जो ज़िंदगी बस इस संघर्ष में बिता देती है कि सोने के लिए कुछ इंच जगह मयस्सर हो जाए.
‘सिटीज़ ऑफ़ स्लीप’ नाम की डॉक्यूमेंट्री फिल्म शौनक सेन के निर्देशन में बनी है। ये फिल्म एक तरह से नींद को एक नयी नज़र से देखने को मजबूर करती है. फिल्म के सिनेमेटोग्राफर सलीम खान का कैमरा दिल्ली के लोहापुल और मीनाबाज़ार नाम की दो जगहों और वहां रात बिताने वाले दो लोगों शकील और रंजीत की ज़िंदगी में बड़ी ही ख़ूबसूरती से झांकता है और शहर की इस बदसूरत शक्ल को खोलकर रख देता है.
शकील जो असम से दिल्ली आया एक मजदूर है जिसने बस इसलिए अपना नाम मनोज से बदल दिया ताकि उसे मुस्लिम लोगों के साथ रात बिताने में दिक्कत ना हो. पिछले सात सालों में नींद की तलाश में उसने फ़्लाइओवर, डिवाइडर, पार्किंग, सबवे, पार्क जैसी हर संभावनाओं को टटोल कर देख लिया है.
पुरानी दिल्ली के मीनाबाज़ार के पास एक जमाल भाई हैं जो दिन में चाय बेचते हैं और रात को नींद. उनके रैनबसेरे में करीब तीस रूपये देकर सोने के लिए एक चारपाई और कम्बल मिलता है. वो खुशनसीब कौन होगा जिसे चारपाई नसीब होगी ये ज़रूरतमंदों की भीड़ पर निर्भर करता है.
रंजीत जो एक दशक से भी ज़्यादा समय से लोहापुल के नीचे एक टेंट में ‘सिनेमा’ दिखाता है. यहां लोग बस इसलिए आते हैं ताकि वो कुछ घंटे फिल्म देखते हुए सो सकें. इसे शौनक अपनी फिल्म में ‘स्लीप सिनेमा’ कहते हैं.
दस रूपये में सिनेमा की लोरियां
“फिल्म देखते हुए नींद अच्छी आती है, ऐसा लगता है जैसे आप फिल्म और नींद के बीच की किसी दुनिया में पहुंच गए हों”. फिल्म का एक दर्शक जब ये कहता है तो सिनेमा के मायने अचानक बदल जाते हैं. अपने तरह के इस ‘सिनेमा हॉल’ में कुर्सियां नहीं बल्कि दरियां और चटाइयां बिछी हुई होती हैं.
यहां आने वाले दर्शकों को ओढ़ने के लिए कम्बल दिया जाता है. दिनभर के थके हारे मजदूरों के लिए एक टीवी पर चलने वाली ये फ़िल्में लोरी की तरह हैं. यहां फ़िल्में मनोरंजन नहीं बल्कि ज़िंदगी के अभावों और उसकी निर्दयता को कुछ देर के लिए भुला देने का जरिया भर हैं, इन सिनेमाई लोरियों की कीमत है दस से पंद्रह रूपये.
दुमंजिला लोहापुल जिसके ऊपर महंगी-महंगी गाड़ियां रात-दिन आवाजाही करती हैं उसके नीचे हर रात करीब चार सौ बेघर लोग सिनेमा के सहारे सोने की कोशिश करते हैं. कभी-कभी यूं भी होता है कि अचानक यमुना का जलस्तर बढ़ जाता है तो इन लोगों की नींद खतरे में पड़ जाती है.
इस ‘स्लीप सिनेमा’ को संचालित करने वाला रंजीत एक तरह से उन सैकड़ों लोगों को नींद का भरोसा देता है जिन पर बड़े-बड़े दावे करने वाले सियासी सौदागरों की नज़र तक नहीं पहुंच पाती. नींद जैसी मूलभूत ज़रुरत को पूरा करने में जहां राजधानी की सत्ता मात खा जाती है वहां रंजीत की सिनेमाई लोरियां कई बेघरों को नींद और छत के अभाव में मरने से बचा लेती हैं.
नींद की जद्दोजहद से उपजता दर्शन
इन वाक्यों को ज़रा गौर से पढ़िए.
“अगर आप किसी की ज़िंदगी पर पूरी तरह कब्ज़ा करना चाहते हैं तो उसे कभी सोने मत दो.”
“अगर आप डेंगू-मलेरिया से बचना चाहते हैं तो डिवाईडर पर सो जाओ”
“गर्मियों में फ़्लाइओवर के नीचे सोने पर गाड़ियों से हवा आती है जिससे नींद अच्छी आती है”
“(सर्दियों में सोने के लिए) आपको पता होना चाहिए कि किस पार्क की बेंच पर लकड़ियों के बीच जगह कम है और गत्तों को कैसे मोड़ा जाता है”.
ज़िंदगी की क्रूरता से नज़र मिलाते ये अनुभव उन लोगों के हैं जो सर्दी, गर्मी और बरसात में नींद के मायनों को बदलते हुए देखते हैं. जिनके लिए मौसमों का बदलना नींद की चाह में मिलने वाली यातनाओं के स्वरुप का बदल जाना भर है. आप सो रहे हों और अचानक तेज़ बरसात आपके बिस्तर को भिगाने लगे. वो ज़मीन कीचड़ में बदल जाने लगे जहां आप लेटे हैं. अचानक बाढ़ का पानी आपके बिस्तरों पर पसर जाने लगे और ये तब हो जब आप दिनभर थक-हार कर अपने शरीर को ज़रा सा आराम देने की प्रक्रिया में हों.
ऐसी हालत में आदमी के पास एक ही चारा बचता है कि वो ज़िंदगी को उसके हाल पर छोड़कर दार्शनिक हो जाए. कुछ लोग दूसरा रास्ता चुनते हैं – आत्महत्या. फिल्म में रंजीत बताता है कि उसने लोहापुल के नीचे बहने वाली नदी से हज़ारों लाशें निकाली हैं. उसकी मानें तो वो लाश देखकर बता देता है कि उसकी मौत किस वजह से हुई होगी.
आंकड़ों में नींद और भयावह लगती है
केन्द्रीय मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले जोनल इंटिग्रेटेड पुलिस नेटवर्क द्वारा हालिया जारी किये गए आंकड़े बताते हैं कि अकेले दिल्ली में साल 2004 से 2015 के बीच 33 हज़ार के करीब बेघर लोग अलग-अलग कारणों से मृत पाए गए. दिल्ली में करीब डेढ़ लाख लोगों को छत नसीब नहीं है, इनमें से तकरीबन साढ़े चार हज़ार लोग ही ऐसे हैं जिन्हें रैनबसेरों में सोने की जगह मिल पाती है.
मतलब ये कि देश की राजधानी के करीब सत्तानबे फीसदी बेघर लोग कहां और कैसे रात बिताएंगे खुद सरकारों के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है. जगमगाती दिल्ली में इनमें से कई बेघर संक्रामक रोगों और कुपोषण के चलते मौत के अंधेरे में गुम हो जाते हैं.
बेहद ख़ूबसूरती से फिल्माई गई और संवेदनशीलता से बनाई गई सिटीज़ ऑफ़ स्लीप (cities of sleep) उन निर्मम रातों का ज़रूरी दस्तावेज है जो देश की राजधानी की एक नग्न सच्चाई बयां करते हुए रोज गहराती हैं. और एक बेशर्म शहर इस सच्चाई से आंखें मूंदकर चैन की नींद सोता रहता है.