Last Updated on: 30th June 2025, 02:02 pm
वृत्त्चित्रों को लेकर भारत में अपेक्षाकृत ठीक ठाक काम होता है लेकिन उनके प्रदर्शन को लेकर उतने प्रयास नहीं दिखाई देते। शहरी इलाकों में कभी कभार कुछ फिल्म फेस्टिवल्स को छोड़ दें तो इनके प्रदर्शन के लिये कोई सुचारु व्यवस्था हमारे देश में देखने को नहीं मिलती।
शायद यही वजह है कि कई गम्भीर मुद्दे इन फिल्मों की शक्ल में उठते तो हैं पर दर्शकों के अभाव में अपनी मौत मर जाते हैं और ये फिल्में चंद फिल्म शोधार्थियों, छात्रों और खुद फिल्मकारों तक सीमित रह जाती हैं। इस बीच दिल्ली के हैबिटेड सेंटर में 27 से 29 अगस्त को आयोजित जीविका फिल्म महोत्सव ( Jeevika Film Festival) में कुछ ऐसे ही गम्भीर मुददों पर बनी फिल्में प्रदर्शित की गई।
‘चिल्ड्रेन ऑफ पायर’ से Jeevika Film Festival की शुरुआत
राजेश ज्याला की फिल्म चिल्ड्रेन ऑफ पायर के प्रदर्शन से महोत्सव की शुरुआत की गई। हालिया राष्ट्रीय पुरुस्कार से नवाजी गई इस फिल्म के केन्द्र में बनारस में गंगा किनारे शवदाह स्थलों पर लाशों से कफन बीनते सात बच्चों की जिन्दगी है। उनके लिये ये कफन ही जीविका का जरिया हैं। लाशों के इर्द गिर्द भविष्य की राह तांकते इन बच्चों की सामाजिक स्वीकार्यता पर फिल्म सवाल खड़े करती है।
”ये (गाली ) हमसे अपने लोगों की लहासें जलवाते हैं और फिर हमें ही अछूत कहते हैं।” फिल्म के पात्र एक बच्चे द्वारा की गई ये टिप्पणी व्यथित करती है। जलती चिताओं के इर्द गिर्द इन बच्चों के नेताओं के बारे में अपने खयाल हैं, उनकी अपनी उम्मीदें, अपनी चिन्ताएं, अपने सपने हैं, लेकिन चिता से उठते गुबार की तरह उनकी जिंदगी में एक धुंध है जिसके पार एक घोर नकारात्मक स्याह अंधेरा है, उतना ही गहरा जितनी शायद मौत।
फिल्म की साउन्ड पर खास काम हुआ है। चिताओं के जलने की आवाज के साथ साथ घाटों के शोर शराबे के बीच बच्चों के संवाद स्पष्ठ तौर पर लोकेशन में ही रिकार्ड किये गये हैं। फिल्म की ध्वनि के लिये मतीन अहमद को भी 2009 के लिये राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है।
सुष्मित घोष और रिंटू थौमस द्वारा निर्देशित ‘इन सर्च ऑफ माई होम’
महोत्सव की दूसरी फिल्म सुष्मित घोष और रिंटू थौमस द्वारा निर्देशित इन सर्च ऑफ माई होम थी। ये फिल्म भारत में बर्मा से आये शरणार्थी एक परिवार की आप बीती पर आधारित है। इन शरणार्थियों की विडम्बना यही है कि उनकी अपनी कोई राष्ट्रीयता निर्धारित नहीं है। ये लोग दो देशों की राजनैतिक नीतियों के बीच पिसने को मजबूर हैं। जीविकोपार्जन को लिये कोई सरकारी नौकरी ये लोग कर नहीं सकते।
स्थाई निवास के प्रमाण के अभाव में ये भारत में अवैध नागरिक की हैसियत से रह रहे हैं और अफसरसाही तंत्र के सौतेले व्यवहार को झेलने के लिये मजबूर हैं। यहां तक कि इन्हें शरणार्थी का दर्जा भी सरकार नहीं दे रही। देशभर में ऐसे 9000 शरणार्थी रह रहे हैं। जिनकी समस्याओं की ओर ध्यान देने की सुध किसी को नहीं है। फिल्म में छायाचित्रों और वीडियो फुटेज का कलात्मक समावेश है लेकिन छायाचित्रों के कलात्मक प्रयोग के फेर में फिल्म का फोकस मुख्य विषय से कभी कभी भटकता मालूम होता है।
एन्ड्रू हिल्टन द्वारा निर्देशित बैकिंग औन चेंज जीविका में प्रदर्शित अन्य महत्वपूर्ण वृत्तचित्रों में है। ये फिल्म तमिलनाडु के एक बैंक मैनेजर जे एस पार्थिबन के प्रयासों पर आधारित है कि कैसे पार्थिबन अपने इस प्रयास के जरिये गरीब और अमीर के बीच की खाई को कम करने का प्रयास करते हैं। पार्थिबन दिल्ली के भिखारियों को अपना बैंक अकाउंट खोलने के लिये प्रेरित करते हैं और अपने गांव में ग्रामीणों को माइ्रक्रो लोन के जरिये उनकी आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद करते हैं।
वो एक बैंक को औफिस के अहाते से बाहर लाकर बैंकिंग प्रणाली के प्रति लोगों की आम धारणा तोड़ते हैं और खुद लोगों के घरों में जाकर उनके खाते खुलवाते हैं। ऐसे में कई जरुरतमंद ग्रामीण उनके इस प्रयास से लाभान्वित हुए हैं। फिल्म का छायांकन लाजवाब है।
रितेश शर्मा की ‘द होली वाईव्स’ : रोंगटे खड़े करने वाली फ़िल्म
इस महोत्सव की एक फिल्म रौगटे खड़े कर देने की हद तक भयावह सच्चाई पेश करती है। रितेश शर्मा की ‘द होली वाईव्स’ उन महिलाओं की सच्ची दास्तान है जिन्हें आज भी परम्परा और धार्मिक आस्था के नाम पर पुरुषवादी समाज अपनी हवस का शिकार बनाता है। धार्मिक परम्पराएं मर्दों को उन औरतों केे मानसिक, शारीरिक शोषण और यहां तक कि बलात्कार तक के लिये सामाजिक स्वीकार्यता प्रदान करती है।
लेकिन इस तरह के निन्दनीय कृत्य के लिये हमारे कानून में आज भी कोई ठोस व्यवस्था नहीं है जिस वजह से देश के अलग अलग कोनों में इस तरह की धार्मिक कुरुतियां धड़ल्ले से अस्तित्व बनाये हुए हैं। कर्नाटक में देवदासी, आन्ध्र प्रदेश में माथामा तो मध्य प्रदेश में बेदिनी प्रथा की शक्ल में महिलाएं अपने साथ होने वाले अमानवीय अनाचार को झेलने के लिये मजबूर हैं। ये औरते एक तरह की पारम्परिक वैश्याएं हैं जो रात में तो छूने योग्य हैं लेकिन दिन में इन्हें अछूत की हैसियत से देखा जाता है।
फिल्म दिखाती है कि इस तरह से नार्किक जीवन बिताने को विवश महिलाओं की मदद के लिये कोई व्यवस्था नहीं है फलतह इसका दंश न केवल इन्हें बल्कि इनके बच्चों को भी झेलना पड़ता है जिनकी मां तो है लेकिन पिता कौन है ये तय करना बड़ा मुश्किल है। ऐसे में इन महिलाओं के अपने भीतर कोने हैं जिनमें आंसू हैं और इन आंसुओं को अपने भीतर किसी टीस की तरह संजोये रखने की मजबूरी। फिल्म इन महिलाओं की सामाजिक और मानसिक स्थिति की बहुत गहरे तक पड़ताल करती है।
महोत्सव के दूसरे दिन अरविंद गौड़ निर्देषित नाटक अनसुनी का भी मंचन प्रदर्शन किया गया।
इन फिल्मों के अतिरिक्त जीविका में कुल 21 फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। दो दिनोें तक चले इस महोत्सव में खुद फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों से जुड़े दर्शकों के सवालों के जवाब भी दिये। आवश्यकता यही है कि इस तरह की सामाजिक सरोकारों से जुड़ी फिल्में केवल गिने चुने लोगों और शहरों तक सीमित न रहें बल्कि इनकी पहुंच आम लोगों तक भी हो।
कुल मिला के मज़ा आ गया. कमाल बेदु
अच्छी जानकारी मिली…..लिखते रहिेए…