मैन विद मूवी कैमरा : कैमरा जब आंख बन जाता है

Last Updated on: 16th July 2025, 08:30 am

फ़िल्मों में रुचि रखने वाले लोगों के लिए मैन विद मूवी कैमरा ( Man with movie camera movie) एक कमाल की फ़िल्म है। जिस दौर में सिनेमा की शुरुआत होती है उस दौर में कैसे एक डाइरैक्ट हर सम्भव तकनीक अपनी फ़िल्म में प्रयोग कर लेता है और पूरी सफलता से, ये बात फ़िल्म देख लेने के बाद ही पता चलती है।

माक्सवादी विचार को लेकर आगे बढ़ती है फ़िल्म (Man with movie camera movie)

1929 में बनी ये डाक्यूमेंट्री फ़िल्म रशियन निर्देशक वर्तोव () ने निर्देशित की। न फ़िल्म में कोई कहानी है, ना ही कोई निर्धारित पात्र। साथ ही, यह एक मूक फ़िल्म है। लेकिन एक घंटे से कुछ ज्यादा समय में आपको एक फ़िल्म को तकनीक के तौर पर देखने, समझने का हर मौका फ़िल्म दे देती है।

कथानक के नाम पर फ़िल्म में एक कैमरामैन अपने ट्राईपॉड और कैमरे के साथ यहां-वहां घूमता है और उसे जो दिखाई देता है वो अपने कैमरे में क़ैद कर लेता है। लेकिन जो बस ऐसे ही क़ैद कर लिया जाता है उसके पीछे कई विचारधाराएं और एक गहन राजनैतिक सोच भी काम करती है।

पूरी फ़िल्म एक माक्सवादी विचार को लेकर आगे बढ़ती है। मसलन समाज में विभिन्न वर्गों के बीच के सामाजिक विभेद को फ़िल्म दिखाती है। फ़िल्म उद्योगों की दुनिया में मजदूरों के पक्ष पर नज़र डालती है।

समय-समय पर मशीनों के क्लोज़अप और उन मशीनों के साथ जूझते इन्सानों के परिश्रम को फ़िल्म एक सूत्र में बाँधती सी महसूस होती है। मशीनों की यह अभिव्यक्ति कई बार इतनी प्रभावशाली सी हो जाती है कि वो खुद में एक चरित्र बन जाती हैं। फ़िल्म के किसी पात्र सी जीवन्त।

 

फ़िल्म की तकनीकों को सिखाती है फ़िल्म (Man with movie camera movie)

फ़िल्म तकनीक के तौर पर फ़ास्ट मोशन, स्लो मोशन, स्प्लिट स्क्रीन, फ़्रीज फ़्रेम, जम्प कट और डबल एक्सपोज़र जैसी तमाम सिनेमाई तकनीकें फ़िल्म में प्रयोग की गई हैं। ये तकनीकें वर्तोव ने सम्भवतह पहले खुद ईजाद की और फिर उन्हें प्रयोग कर लिया।

एक निर्देशक कितना प्रयोगवादी हो सकता है उसकी हद इस फ़िल्म में देखने को मिल जाती है। फ़िल्म के एक दृश्य में एक नवजात को गर्भनाल से अलग होते हुए दिखाया गया है। एक और दृश्य में महिलाओं को नग्न दिखाया गया है। एक दृश्य में कैमरामैन शीशे के गिलासों के बीच से सुपरइम्पोज़ हो जाता है। एक और दृश्य में पहाड़ से बड़े कैमरे के उपर कैमरामैन अपना ट्राईपौड सेट करता हुआ सा दिखाई देता है।

कहीं रेलगाड़ी रफ़्तार से भागती नज़र आती है तो कहीं भारी भीड़ और फिर कहीं विशाल पानी की धाराएं। माने यह कि फ़िल्म का धरातल इतना बड़ा है कि उसमें महज एक घंटे में क्या कुछ नहीं समा गया है। एक प्रयोग के तौर पर इस फ़िल्म में देखने के लिए कितना कुछ है ये एक बार देखने के बाद आप जान जाएंगे।

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