Last Updated on: 11th July 2025, 09:47 am
वे फ़ैज़ नहीं हैं फ़ैज़ा हैं इसलिए उनका अंदाज़े-बयाँ अलहदा है। फ़ैज़ शब्दों से अपनी बात कहते थे फ़ैज़ा ( Faiza Ahmad Khan) ने वृत्तचित्र सुपरमैन ऑफ़ (superman of malegaon) के ज़रिए कही और जो कही कमाल कही।
किसी कविता सी दिल में उतर गई, चित्रों के कई वृत्त सी बनाती, जैसे नदी के शान्त प्रवाह में कंकड़ को हल्के से धकेल दिया हो। फ़ैज़ा अहमद ख़ान और कुहू तनवीर की फ़िल्म सुपरमैन आफ मालेगाँव एक डॉक्यूमेंट्री फ़ॉर्म की फ़िल्म है।
पूरी फ़िल्म एक फ़िल्म बनने की प्रक्रिया से जुड़ती है और फ़िल्म के भीतर उस फ़िल्म के बन जाने और प्रदर्शित हो जाने के बाद तक चलती है। पहले तो ये फ़िल्म ही अच्छी बनी है और उसपर जिस फ़िल्म की ये चर्चा करती है वो भी गजब ढ़ा गई है।
मालेगाँव धमाकों के बाद पहली बार चर्चा में आया (Superman of Malegaon review)
मालेगाँव चर्चा में तब आया जब एक मोटरसाइकिल में रखे बम से हुए धमाके में वहां सौ से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। लेकिन हम आप में से कम ही लोग जानते हैं कि वहां एक फ़िल्म इन्डस्ट्री है। इस इन्डस्ट्री की खास बात है कि इसमें काम करने वाले लोग कोई बड़े फ़िल्मी सितारे नहीं हैं बल्कि मालेगाँव के हैन्डलूम पावर कारखाने में काम करने वाले मजदूर हैं और निर्देशक गाँव के ही नासिर भाई हैं। जिन्होंने एक सपना देखा और फिर जुट गये उसे पूरा करने में। सपना कि अपनी कुछ फ़िल्में बनें। सुपरमैन ऑफ़ (superman of malegaon review) जैसी फ़िल्में।
मालेगाँव के लोगों के द्वारा, मुम्बईया फ़िल्मों के समानान्र। 1999 में उन्होंने बालिवुड की मसहूर फ़िल्म शोले की रीमेक बनाई और फिर ये सिलसिला चलता रहा। लेकिन इसबार उन्होंने बॉलीवुड को पीछे छोड़ने की ठानी और सुपरमैन का रीमेक बनाने में जुट गये। लेकिन कहानी आसान नहीं रही।
पैनासोनिक के साधारण से हैंडीकैम से शूटिंग करने की चुनौती उसपर संसाधनों के नाम पर कुछ नहीं। न डौली न क्रेन, उस पर उड़ने वाले सुपरमैन को फ़िल्माना। क्रोमा तकनीक का पता करने किसी स्टूडियो गये तो पूरे दो लाख रुपये के ख़र्च की बात सुनकर हौसले कुछ कम हुए नासिर भाई के। “इतने में तो हमारी चार फ़िल्में बन जायेंगी।” उन्होंने स्टूडियो वाले से कहा और फिर कुछ और सोच लिया।
जुगाड़ तो होते ही हैं दुनिया में। क्रेन के लिये बैलगाड़ी और ट्रॉली के लिए साइकिल और ट्रक की मदद ली गई। सुपरमैन का क़िरदार एक मसलमैन ने नहीं बल्कि एक पतले से सीधे-साधे मजदूर ने निभाया। पूरी कॉमेडी फ़िल्म बनाई नासिर भाई ने। फ़िल्म ने सबको खूब गुदगुदाया पर किसी की मजाल जो उनके इस प्रयास की कोई हँसी उड़ा सके।
बेहद कम संसाधनों में बनी सुपरमैन ऑफ़ मालेगाँव (Superman of Malegaon- A low budget film)
जब आप फ़ैज़ा साहब की इस डॉक्यूमेंट्री को देख रहे होते हैं तो आपकी आँखें आश्चर्य से फटी रह जाती हैं कि कोई इतने कम संसाधनों में ऐसे प्रयास की सोच भी सकता है। कितनी लगन होगी उस आदमी में जो असम्भव से दिखने वाले प्रयास को बिना पैसे बिना किसी संसाधन के अंजाम दे रहा है।
मालेगाँव का सुपरमैन दरअसल एक प्रेरणा है कि फ़िल्में बनाने के लिए चीज़ की सबसे ज्यादा ज़रूरत है वो है इच्छा शक्ति। फ़िल्म आपको मालेगाँव के इन क़िरदारों से इतना जोड़ देती है कि फ़िल्म के एक दृश्य में शूटिंग करते हुए नासिर भाई का कैमरा पानी में गिर जाता है और सिरीफोर्ट ऑडीटोरियम में बैठे दर्शक सकते में आ जाते हैं। ओह शिट। ओेह नो। इस तरह की फुसफुसाहट ऑडीटोरियम में होने लगती है।
क्योंकि लोग जान रहे हैं कि उस कैमरे में मालेगाँव और नासिर भाई का सपना छुपा है। उस सपने से, देखने वाला इतना जुड़ जाता है कि वो तब तक परेशान रहता है जब तक उसे पता नहीं चल जाता कि कैमरा ठीक हो गया है। इस दुबले पतले सुपरमैन की अदाएं खूब गुदगुदाती भी हैं दर्शकों को। उसका उड़ना कैसे सम्भव हो जाता है ये चौंकाता है। कैसे एडिटिंग अपना कमाल दिखाती है और फ़िल्म पहुँचती है अपनी टार्गेट ओडिएंस के पास। मालेगाँव के लोगों के पास।
क्या छोटी फ़िल्मों की मदद के लिए फ़रिश्ते आएंगे ?
फ़ैज़ा का ये पूरा वृत्तचित्र बहुत ही लाजवाब बन पड़ा है। डॉक्यूमेंट्री की स्टीरियोटिपकल फ़ॉर्म को तोड़ता सा। साथ ही एक बड़ा सवाल भी फ़िल्म खड़ा करती है कि क्या स्टार सिस्टम के समानान्तर हो रहे इन छोटे-छोटे क्षेत्रीय स्तर के प्रयासों का कोई योगदान फ़िल्मों के विकास में है भी कि नहीं और यदि है तो क्या उनकी मदद के लिए आकाश से फ़रिश्ते आयेंगे और तब तक हम ऐसी फ़िल्मों से रुबरु कराती कुछ बड़े बैनर की फ़िल्मों को आसियान जैसे फेस्टिवल में दिखाकर ही खुश होते रहेंगे।
क्या हम तब तक यही कहते रहेंगे कि वाह मालेगाँव में क्या सही काम हो रहा है फ़िल्मों पर, तब तक जब तक ये अनूठा सिनेमाई प्रयास दम तोड़ चुका होगा। किसी मदद का इन्तजार करते करते।
आपका यह ब्लॉग बेहतरीन है… सुखद.. और आपके सुनियत का आइना… जिस तरेह से आपने हमें सुपरमैन से एवं फैजा साहब से जोड़ा वो भी उल्लेखनीय है… दाद देता हूँ आपकी और फिल्म तो लाजवाब है ही… यह उन निर्माता निर्देशकों के लिए भी सीख होगी जो अपर संसाधन जोड़ कर भी एक घटिया फिल्म देते हैं…. और सोचते हैं की स्टार जुटाने के अच्छी फिल्म बनती हैं… शुक्रिया उमेश जी…
माले गाँव की शोले के बारे में बहुत कुछ सुन चुका हूँ.. कई विडियोस भी देखे.. सायकल को ट्रोली बनाया जा सकता है.. ये आईडिया भी मुझे उन्ही से मिला था.. सपने पुरे ज़रूर होते है.. बस उन्हें देखने वाला चाहिए..