भूत के प्रकोप से मुक्ति की सच्ची कहानी

Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm

निलिता वचानी एक जानी मानी डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकर हैं ये बात कल उनकी फिल्मों के अंश देखते और उन पर उन्हीं की टिप्पणियों को सुनते मालूम हुई। ‘आइज आफ स्टोन’ उनकी उल्लेखनीय वृत्तचित्रों में शुमार है। साथ ही सब्जी मंडी के हीरे भी चर्चा में रही है।

वृत्तचित्रों के लिए एक खास किस्म की समझ होना बड़ा लाजमी है क्योंकि ये समझ उसे एक सादा डाक्यूमेंटेशन बनने से रोकती है। डाक्यूमेंट्री का फ़ॉर्म सादी बाईट और इवेन्ट के बेहद सरल डाक्यूमेंटेशन से इतर भी बहुत कुछ हो सकता है निलिता की फिल्में ये बात बड़ी आसानी से समझा देती हैं। क्यों एक फिल्म कला नहीं हो सकती और एक फिल्म कलाकार। एक फिल्मकार एक सलाहकार, मनोवैज्ञानिक और एक रिफोर्मर भी हो सकता है। बस उसका अपनी चीजों से जुड़ाव हो। अपनी फिल्मों के लिये और उसके चरित्रों के लिये उसके भीतर एक गजब तरह की आस्था हो और उसके अपने कन्सर्न फिल्म के समानान्तर सांस लेते हो। तो शायद फिल्म बनाने की पूरी घटना एक अनुभव बन सकती है।

निलिता की बातें कम से कम इस तरह का विश्वास पनपाने में सफल रहती हैं। वो कहती हैं कि फिल्म के चरित्रों के साथ उनका इतना लगाव हो जाता है कि वो उनसे आशा करने लगते हैं कि एक फिल्मकार होने के नाते मैं उनकी निजी समस्याओं को भी सुलझा सकती हूं। वो मुझे अपने निजी राज बताने लगते हैं और चाहते हैं कि मैं उनकी समस्याओं का समाधान कर दूंगी। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता।


क्या है ‘आइज़ ऑफ़ स्टोन’ की कहानी

आइज़ ऑफ़ स्टोन राजस्थान के भिलवाड़ा के एक गांव की 19 साल की औरत शान्ता की कहानी है। शान्ता जिसने बालिग होने की दहलीज को बस पार ही किया है तीन बच्चों की मां है। दस साल की उम्र में शादी और बारह की होते होते बच्चे पैदा करने के अनुभव से जूझती मां शान्ता बीमार सी रहने लगी। शरीर और सर दोनों में दर्द रहने लगा। नौ साल के वैवाहिक जीवन में से पाँच साल बीमारी की इसी हालत में गुजर गये हैं। पति एक ट्रक ड्राईवर है। इस डॉक्यूमेंट्री को फिल्माने के दौर में शान्ता अपने मायके आई हुई है। सबका मानना है कि उसपर किसी बाहरी शक्ति ने अधिकार कर लिया है। वो कोई भूत है जो शान्ता के शरीर में समा चुका है। गांव में ये आम मान्यता है। और इसका हल भी मौजूद है।

भान्क्या माता के मन्दिर में औरतों में लगने वाले इस भूत से मुक्ति के उपाय मौजूद हैं। शान्ता को लगातार सात शनिवारों तक मन्दिर में चौखी भरनी होगी। और नौवें शनिवार तक उसके भीतर से भूत का साया मुक्त हो जायेगा। इस पूरी प्रक्रिया के बीच निलिता अपने विदेशी सिनेमेटोग्राफर के साथ फिल्म बना रही हैं। उनका कैमरा शान्ता की परेशानियों से जूझता है। कैसे वो 19 साल की औरत दिनभर शारीरिक कष्ट उठा रही है। कैमरा गहरे तक जाकर इसकी पड़ताल करता है।


क्या सच में होते हैं भूत?

यहां कई सवाल फिल्म देखते हुए खड़े होते हैं। क्या भूत लगने की या शरीर पर किसी दूसरी आत्मा के अधिकार होने की बातें सच भी होती हैं। यदि हां तो उसके पीछे की वैज्ञानिक अवधारणा क्या है। मनोवैज्ञानिक इस साईकोलौजिकल डिसोर्डर मानते हैं। यूरोप में डैमनिजम जैसी अवधारणाएं पहुत पुरानी रही हैं। उस दौर में भूतों से श्रीर को मुक्ति देने के जो तरीके अपनाये गये वो बहुत वहशियाना थे। सामाजिक सुधार आन्दोलनों के बाद यूरोप इस अवधारणा से मुक्त हो सका। लेकिन भारत जैसे देश में आज तक इस तरह की अवधारणाओं को मिथ्यात्मक नहीं माना जा सका है।

निलिता की इस फिल्म से इस तथ्य की जड़ें और मजबूत हो जाती हैं। आज भी राजस्थान, मध्य प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में दैवीय शक्तियों के प्रकोप की बातों पर लोगों का गहरा विश्वास है। ओझा और भोपा जैसे लोगों पर लोगों की गांवों में बड़ी आस्था है। पर इन आस्थाओं का आधार वास्तव में कितना मजबूत है। आइज ऑफ़ स्टोन इस आधार की कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं करती। फिल्म पजेशन के इस कन्सेप्ट के मानवीय पक्ष पर केन्द्रित रहती है। निलिता शान्ता और उसके पति के बीच के सम्बन्धों की पड़ताल भी करती हैं। और इस पड़ताल के बीच से कुछ चौंकाने वाली बातें उभर आती हैं।


गाँव में पैसे देकर ख़रीदी जाती हैं पत्नियाँ

कैसे उसके पति के लिये पत्नी एक ऐसी चीज है जिसका बदल जाना कोई खास अहमियत नहीं रखता। वो बताता है कि कैसे अगर उसे लगा कि पत्नी किसी काम की नहीं रही तो उसे बदला जा सकता है। वो बताता है कि गांव में ऐसा तो होता ही है। पैसे देकर नई पत्नी को लाया जा सकता है और मौजूदा पत्नी को किसी और को दे दिया जा सकता है। पांच से दस हजार रुपये जुगाड़ने भर की देर है। शान्ता अपनी बीमारी के बीच इस गहरी असुरक्षा से भी जूझ रही है कि कहीं उसे उसका पति छोड़ न दे।

निलिता की इस फिल्म में डाक्यूमेंट्री और फीचर फिल्म के बीच के अन्तर को खत्म सा होते देखा जा सकता है। एक डाक्यूमेंट्री फिल्म तथ्यों के परे मानवीय भावनाओं के इर्द गिर्द खड़ी होकर भी अपनी पूर्णता बनाये रख सकती है। वो एक पूरी फिल्म की तरह लग सकती है। उसके चरित्र पूरी तरह वास्तविक होने के बावजूद पूरी तरह मझे हुए कलाकार लग सकते हैं। उनकी विडम्बनाएं किसी फिल्म की गढ़ी हुई विडम्बनाएं लग सकती हैं।


शांता की कहानी

सच कई बार कितना नाटकीय हो जाता है और हमारे असल जीवन में उसकी नाटकीयता की झलकियां बड़ी आसानी से तलाशी जा सकती हैं। बस उसके लिये एक समझ होना जरुरी है। इसे हम जिन्दगी की समझ भी कह सकते हैं। निलिता उस तलाश में कामयाब रहती हैं। फिल्म देखते हुए कई बार लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि शान्ता जिस तरह की उटपटांग हरकतें कर रहीं है उसकी वजह कैमरा है। खुद निलिता ये बात कह कहती हैं कि ये असम्भव नहीं है। पर जब कैमरा वहां नहीं होता तब भी गांव में अन्य महिलाएं इस प्रक्रिया से जूझती रही हैं।

फिल्म को हिस्सों में देखने के बाद भी एक जिज्ञासा जगती है कि अब शान्ता का क्या होगा। कहीं उसका पति उसे छोड़ तो नहीं देगा। वो कब ठीक होगी। और कब अपनी दिनचर्या को सामान्य कर पायेगी।


राष्ट्रपति द्वारा मिल चुका है पुरस्कार

आइज़ ऑफ़  स्टोन निलिता वचानी की पहली डाक्यूमेंट्री फिल्म है। इससे पहले वो सलाम बाम्बे में स्क्रिप्ट सुपरवाईजर और असिस्टेंट डाईरेक्टर की भूमिका निभा चुकी हैं। सब्जी मंडी के हीरे निलिता की एक और बेहतरीन फिल्म है जो बसों में सामान बेचने वाले एक आदमी हस्मत की कहानी है। इस फिल्म का जिक्र कभी और विस्तार से करने का मन है। निलिता की होम स्पाउन नाम से एक किताब भी आ चुकी है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के आईपी कालेज से ग्रेजुएशन करने के बाद पेंसेलवेनिया और शिकागो से एम ए किया। उनकी फिल्में 30 से ज्यादा फिल्म फेस्टिवल्स में दिखाई जा चुकी हैं। 1992 में उन्हें राष्ट्रपति द्वारा दिये जाने वाले रजत कमल पुरस्कार से नवाजा गया और इसी साल मुम्बई फिल्म फेस्टिवल में उनकी फिल्म को पुरस्कृत किया गया। इसके अलावा भी कई विदेशी फेस्टिवल्स में उनकी फिल्में पुरस्कार जीत चुकी हैं।

3 thoughts on “भूत के प्रकोप से मुक्ति की सच्ची कहानी

  1. हिन्दुस्तानी औरतो में एक इन बिल्ट सर्वाय्वल सिस्टम होता है …..अजीब किस्म का शांता जैसी औरते साइंस के कई वैघ्यानिको के लिए स्ट्रेस टेस्टों के कई ग्राफ तैयार कर सकती है….खैर इन्हें फिल्माना ओर इन अनुभवों से गुजरना भी एक दर्द सेगुजरने जैसा है

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