Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm
“ये“ लोग 2021 तक पूरे देश को हिन्दू बना देने की बात करते हैं। और सरहद पार से “वो“ लोग चाहते हैं कि पाकिस्तान के बाद भारत में इस्लाम अपनी परवाज़ भरने लगे। ये पहचान के कुछ चैखटे हैं जिनमें कट्टरपंथी अपनी-अपनी मजबूरी के मुताबिक आपको और हमें फिट कर देना चाहते हैं। पहचानों की इस रणभूमि में जो ताकतवर है उसकी आवाज़ें अखबारों, समाचार पत्रों और यहां तक कि सोशियल मीडिया में सुखिर्यां बटोर लेती हैं। लेकिन उनका क्या जिनकी पहचान को हर धर्म तिरस्कार की नज़र से देखता है। वो पहचान जो न किसी धर्म के सांचे में फिट होती है न समाज जिसे अपने फ्रेम में कहीं जगह देना चाहता है। वो पहचान जिसपर बात तक करना मुनासिब नहीं समझा जाता और जिसपर कभी चर्चा होती भी है तो बस मज़ाक के तौर पर।
हिजड़ा, छक्का, नामर्द और फिर एक ज़ोरदार ठहाका। पहचान का एक ऐसा गंभीर संकट जिसे समाज तो क्या खुद परिवार के लोग भी संकट मानने को तैयार नहीं। उसपर तुर्रा ये कि उनपर होने वाली चर्चा उन्हें मानसिक रोगी करार देने पर तुल जाती है और ज्यादा हुआ तो कह दिया जाता है कि यही लोग हैं जो समाज और संस्कृति को नष्ट करने पर तुले हैं। ट्रांसजेंडर्स यानी विपरीतलिंगियों के पहचान के संकट की ये अक्सर अनकही रह जाने वाली सत्य घटना रितेश शर्मा की फिल्म ‘रेंबोज़ आर रियल’ के केन्द्र में आ जाती है। इसलिये ये फिल्म हमारे समय के हाशिये पर डाल दिये गये लोगों का एक ज़रुरी दस्तावेज बन जाती है।
फिल्म बनारस में जन्मे दिल्ली में रहे एक ऐसे फिल्मकार की यात्रा है जो विपरीतलिंगियों की इस दुनिया के लिये अपनी उत्सुकता को कैमरे में दर्ज़ कर लेना चाहता है। एक फिल्मकार जिसके परिवेश ने उसे यही सिखाया है कि “ये लोग अच्छे नहीं होते, उनसे दूर रहो“। फिल्मकार उन “खराब“ लोगों से मिलने कलकत्ता की गलियों में भटकता है जहां उसे तीन ऐसे इन्सान मिलते हैं जो खुद को उस रुप में सहज नहीं पाते जिस रुप में वो पैदा हुए हैं और खासकर समाज उन्हें देखता आया है। जिनका मनोविज्ञान जिनके जीवविज्ञान से मेल नहीं खाता। अपनी ही पहचान के अन्तद्वंन्द्व से जूझते हुए जो इस नतीजे पर पहुंच गये हैं कि उनकी देहभाषा, रहन सहन, पहनावा अब वो समाज तय नहीं करेंगा जिसे उसे पहचानने तक की तमीज़ नहीं है बल्कि ये वो खुद तय करेंगे कि अपनी आने वाली जि़न्दगी वो कैसे जियेंगे। उस समाज की इच्छा के खिलाफ जो ये तो तय कर सकता है कि “लड़की लड़के जैसा हो जाये तो देखने में अच्छा नहीं लगता“ लेकिन ये नहीं समझ सकता कि जो उन्हें देखने में “अच्छा“ लग रहा है उसे जीना उनके लिये एक ऐसे कमरे में बंद होकर जीने की तरह है जहां सांस लेने की हवा तक नहीं आती।
अनु, पाउली और ट्रेसी नाम के जो तीन शरीर “रेम्बोज़ आर रियल“ के कथाकेन्द्र में हैं फिल्म उनके मन तक जा पहुंचती है। मन टटोला जाता है तो कई घाव ताज़ा हो जाते हैं। लेकिन फिल्म उन घावों को कुरेदने की जगह उनके जीवन के रंगों को तलाशने की कोशिश करती है। फिल्म बताती है कि दरअसल इन्द्रधनुष वास्तविक हैं, वो हम ही हैं जो रंगों को उनकी रंगीन सच्चाई में नही बल्कि अपने भेदभावपूर्ण बेरंग चश्मे से देखते हैं।
आंकणों के मुताबिक भारत में तकरीबन 20 लाख विपरीतलिंगी लोग रहते हैं। रहते क्या हैं अपनी पहचान अपनाये जाने के संघर्ष में जुटे हैं। वो अब भी कमोवेश 153 साल पहले लागू किये गये भारतीय उपनिवेश के उस निर्मम कानून का दंश झेल रहे हैं जो सुनने भर से बर्बर लगता है। जिसके तहत भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के अन्तर्गत समान लिंग के दो लोगों के बीच शारीरिक संबंध अप्राकृतिक हैं और इसके लिये 10 साल की सज़ा का प्रावधान है। एक सभ्य समाज होने के नाते इस कानून की मुखालफत हमारे देश में कई सालों से चली आ रही है। 2009 में भारत के चुनाव आयोग के सराहनीय कदम में विपरीतलिंगियों को अपनी लैंगिक पहचान बताने की अनुमति दी गई। उन्हें पुल्लिंग या स्त्रीलिंग की जगह “अन्य“ की श्रेणी में शामिल किया गया। अपैल 2014 में भारतीय सर्वाेच्च न्यायालय के एक अहम फैसले में विपरीलिंगियों को “तीसरे लिंग“ के रुप में ये कहते हुए मान्यता दी गई कि “हमारे समाज को न ये भान है, न ही वो ये समझने की कोशिश करता है कि विपरीतलिंगी समुदाय के लोग किस सदम,े वेदना और दर्द से रुबरु होते हैं, न ही वो इस समुदाय के सदस्यों की आन्तरिक भावना का आदर करते हैं, खासकर उनकी जिनका दिमाग और शरीर उनके जैविक लिंग को अस्वीकृत कर देता है।”
उच्च न्यायालय के उस उल्लेख के पीछे इस समुदाय के साथ लगातार होती रही बलात्कार, उत्पीड़न, शोषण और यहां तक कि हत्याओं की घटनाओं की एक लम्बी फेहरिस्त है जिसे हमारा समाज तवज्जो देना तक ज़रुरी नहीं समझता। उनके साथ भेदभाव के वो अन्तहीन सिलसिले जुड़े हैं कि रोजगार जैसी मूलभूत ज़रुरत के लिये आखिरकार उन्हें न चाहते हुए भी वैश्यावृत्ति की दुनिया में कदम रखना पड़ता है। भारतीय संविधान में उल्लेखित समानता के अधिकार और उत्पीड़न के खिलाफ अधिकार की धज्जियां उडा़ते हुए इस समुदाय के लिये हमारा रवैया चैंकाने की हद तक तिरस्कारपूर्ण रहा है। रितेश शर्मा की इस फिल्म में एक दृश्य है जिसमें ट्रेसी, पाउली और अनु दुर्गापूजा के एक कार्यक्रम में शामिल होने गये हैं और उनके साथ लड़कों की एक पूरी जमात छींटाकशी और यहां तक कि शारीरिक उत्पीड़न तक का प्रयास करती है ये जानते हुए कि सामने एक कैमरा लगा है जिसमें उनकी ये हरकतें कैद हो रही हैं।
दो साल कोलकाता के इन विपरीतलिंगियों के बीच बिताने के बाद रितेश शर्मा अपने कई गहरे अनुभव साझा करते हैं। वो बताते हैं कि “विपरीत लिंगियों के लिये हमारा रवैया आज भी नहीं बदला है। हम उन्हें अपने समाज से अलग करके देखते हैं। उनमें भी वही भावनाएं हैं जो हममें हैं बल्कि कई मायनों में वो हमसे कई ज्यादा खुले दिमाग के हैं। वो हमसे कई गुना ज्यादा खूबसूरत लोग हैं।“ वो एक किस्से का जि़क्र करते हुए कहते हैं – “वो रक्षाबंधन का समय था और अनु, जिसका शरीर तो मर्द का है लेकिन जिसके भीतर की भावनाएं एक स्त्री की हैं, मेरे पास आई। उसके हाथ में राखी थी और वो मुस्कुराकर बोली कि तुम हमारे लिये इतना काम कर रहे हो, तुम मेरे भाई की तरह हो।“ रितेश कुछ भावुक होकर कहते हैं “वो आज भी मुझे राखी भेजती है”
रेम्बोज़ आर रियल देखने के बाद जो पहली भावना उभरती है वो यही कि इतने रंगों से भरे और खूबसूरत लोगों को अपनाना हमारे लिये इतना मुश्किल क्यों है ? उनके लिये इतनी उदासीनता और तिरस्कार की आंखिर कौन सी वजहें हो सकती हैं। जबकि भारतीय समाज में इन लोगों का अस्तित्व कोई नया नहीं है। रामायण, महाभारत की कथाओं से लेकर मुगलकालीन दरबारों में इन लोगों की गरिमामय उपस्थिति रही है। सुस्रुत संहिता से लेकर वाल्मीकि रामायण तक में इनका उल्लेख मिलता है। साफ है कि ये तर्क वहीं धराशाई हो जाता है कि ट्रांसजैंडर्स जैसी संस्कृति हमारे पास पाश्चात्य सभ्यता से आई है। कट्टरपंथियों का इन्हें समाज के लिये खतरा बताना और साथ में पुरातन ज्ञान को गरिमामय स्थापित करना उनके दोगलेपन को ही दिखाता है।
तकरीबन एक घंटे की ये डाॅक्यूमेंट्री फिल्म दरअसल आसमान में अपने हिस्से का इन्द्रधनुष का वो टुकड़ा तलाशने की जद्दोजहद है जो दशकों पुराने भेदभाव के बादलों के पीछे आजतक कहीं छुपा हुआ है। जो तब तक शायद ही दिखाई दे जब तक हम इतने संवेदनशील न हो जाएं कि छिपी हुई यातनाओं के मर्म को समझ सकें। पर उम्मीद इसी वजह से बनी हुई है कि इन्द्रधनुष जहां कहीं भी हो, है तो एक सच ही।