Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm
बाज़ार के सामने बार-बार हारता बॉलिवुड जब दम लगाता है तो दम लगाके हाइशा (dum laga ke haisha movie) सरीखा कुछ सम्भव हो पाता है। दम लगाके हाइशा खुद को हारते हुए देखकर भी जीतता हुआ महसूस करने सा अनुभव है।
हमारी नज़र भर से जि़न्दगी के तमाम चेहरे एकदम बदल जाते हैं। जो चीज़ हमें जैसी लगती है ठीक वैसी वो कभी होती ही नहीं। हमारी अपनी सीमाएं उस चीज़ के हमारी जि़न्दगी में मायने बदल देती हैं। इसके असर कई बार दूसरों से और कई बार खुद से ही हमारे रिश्तों में नकारात्मकता भर देते हैं। इतनी नकारात्मकता कि कई बार हम पूरी तरह हार जाते हैं। और फिर ताजि़न्दगी एक हारी हुई जिन्दगी जीते चले जाते हैं।
क्या है दम लगा के हइशा की कहानी
दम लगाके हइशा का नायक ठीक ऐसी ही हारी हुई जिन्दगी जी रहा होता अगर फिल्म की नायिका उसे हार के उस व्याकरण के इतर एक नई भाषा न सिखा देती। वही नायिका जिसके जीवन में शामिल होने को नायक अपने जीवन की सबसे बड़ी हार मान बैठा है। बस इस वजह से कि वो खूबूसूरती की उस दुनयावी परिभाषा में फिट नहीं बैठती जिसे वह अब तक सीखता चला आया है।
हरिद्वार के परिवेश में बुना गया दम लगा के हईशा का कथानक कैसेट के सीडी में रुपान्तरण के दौर का कथानक है। लच्छेदार रील वाली कैसेट में कुमार सानू मार्का गाने भरे जाने का दौर खत्म होने पर आ रहा है। मीटरों लम्बी रील काॅम्पेक्ट डिस्क की सीमाओं में बंधने जा रही है। और समय के ठीक उसी हिस्से में एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार के प्रेम तिवारी, एक अपेक्षाकृत बेहतर माली हालत वाले परिवार की संध्या वर्मा से विवाह के बंधन में बंधता है और यह बंधन उस पर इसलिये थोप दिया जाता है कि उसे आंखिर और कौन सी लड़की मिलेगी।
लड़की पढी़ लिखी है, बीएड कर चुकी है। उसे सरकारी नौकरी मिल जाएगी। यही उसकी यूएसपी है। और लड़का एक बंद होने की कगार पर पड़ा हुआ म्यूजि़क स्टोर खोलकर किसी तरह टाइमनपास कर रहा है, दसवीं पास भी नहीं है। उसमें कोई यूएसपी ही नहीं है। लड़की समझदार है, पर थुलथुल है।
लड़के में लड़के होने की ठसक है, पर भीतर से वो भी ये जानता है कि वो एक लड़के से होने वाली पारिवारिक अपेक्षाओं की ज़मीन पर कहीं नहीं ठहरता। अपनी नालायकी का एक आत्मज्ञान उसे है जो उसे अपने पिता से चप्पल खाने के बाद भी यथास्थिति बनाये रखता है। लड़की लड़के को रिझाने की तमाम कोशिशें करती है। पहली रात जब उन दोनों के बीच कुछ नहीं होता तो वीसीआर में अंग्रज़ी फिल्म देखकर ही सही पर कोशिश करती है कि दोनों के बीच कुछ हो।
लेकिन लड़का “चाहिये कुछ और था मिल गया कुछ और“ वाले मोड से बाहर नहीं निकल पा रहा। संध्या के साथ बाहर जाने में उसे शर्म आती है। दोस्तों के बीच उसकी हनक कम होती है इससे। परिवार में तो खैर वो पहले ही कुछ हैसियत नहीं रखता। संध्या उससे कई मायनों में बेहतर है। ये बेहतरी का बोध अपने ही पति द्वारा दोस्तों के बीच पीठ पीछे अपमानित किये जाने के बाद और सबल हो जाता है। यहां समीकरण बदल जाते हैं, लड़की घर छोड़कर चली जाती है।
कोट, कचहरी और फिर 6 महीने साथ रहने की कानूनी मजबूरी के बीच बहुत कुछ बदल जाता है। यह बदलाव कहानी को एक खूबसूरत मोड़ की तरफ बढ़ाता है। आंखिर में जब एक प्रतियोगिता पूरी होती है तो पति-पत्नी के रिश्तों में प्रतियोगिता का दौर भी खत्म हो जाता है।
छोटे शहर के जीवन से जुड़ी फ़िल्म
अगर आप हिन्दी पट्टी के एक छोटे शहर के जीवन से ज़रा भी ताल्लुक रखते हैं तो दम लगाके हइशा को देखने की कई वजहें आपको मिल जाएंगी। आप उसे बस उसके संवादों के लिये भी देख सकते हैं। पैसे बचाने के लिये “घर पहुंचकर तू एक मिसकाल मारियो और तू दो“ कहने वाली औरतें वहां आपको मिल जाएगी। आवश्यकता से ज्यादा शुद्ध हिन्दी में वार्तालाप करने वाले शाखा बाबू से वहां आपकी मुलाकात होगी।
दुकान में नाईटी खरीदने के लिये ब्रा की ओर इशारा करके “कुछ वैसा“ दिखाइये कहने वाली नई नई बहू और “कुछ वैसा“ दिखाने भर के खयाल से शर्म से पानी-पानी हुए जाने वाला लप्पू का दोस्त दुकानदार भी वहां आपको दिखाई देगा। अपने दोस्त की शादी में कोट और पैंट के नीचे स्पोर्ट्स शूज़ पहने प्रेम प्रकाश को देखकर आपको वो छोटा शहर याद आ जाएगा।
“हमारे यहां तो रोज ही पनीर बनता है इनको खिला दीजिये“ टाइप ताने, “कटोरे में कम-कम सब्जी डालने“ की नसीहतें, फिल्म में इस तरह की छोटी-छोटी डीटेलिंग पर खास ध्यान दिया गया है। जि़न्दगी में मौजूद तमाम कमियों के बीच इन्हीं छोटी-छोटी किफायतों के ज़रिये खुद को बचाये रखने की मध्यवर्गीय जद्दोजहद दिखाती फिल्म। उम्मीदों की तकरीबन खाली कटोरी से खरोड़-खरोड़ कर जुटाया जीने का हौसला भी है ये फिल्म।
दम लगा के हइशा फ़िल्म के किरदार भी हैं दमदार
(dum laga ke haisha movie)
फिल्म का भूगोल तो खैर खूबसूरत है ही उसके किरदार भी दमदार हैं। बेटे की नालायकी पर उसे चप्पल तक मार देने वाले औघड़ से पिता के रुप में संजय मिश्रा हों या लड़की की मां के रुप में सीमा पाहवा और बहू को शुद्ध देसी ताने देने वाली बुआ के किरदार में शीबा चड्ढ़ा, सबने कहानी में छोटे शहर वाला एकदम देसी छोंका लगाया है। संध्या के रुप में भूमि पेडनेकर और प्रेम प्रकाश उर्फ लप्पू के किरदार में आयुष्मान खुराना दोनों ने एक दूसरे को जबरदस्त टक्कर दी है।
टेप रिकाॅर्डर में गाने बदल बदल कर होने वाली पति-पत्नी लड़ाई या फिर कैसेट में पत्नी के पसंद के “गाने भरने“ की इच्छा को बेतरह नकार देने से उन गानों को भरने तक का ये सफर रुमानियत से भरा है। न कोई बड़ा फिल्मी मसाला, न कोई सिनामाई लल्लो-चप्पो और लागलपेट। कम बज़ट में कम बज़ट वाले घरों के बहुत करीब की कहानी निर्देशक शरत कटारिया ने खूब कही है। और उस पर वरुण ग्रोवर के बुने मोह मोह के धागे भी सही तड़का लगाते हैं।
कुलमिलाकर छोटे शहर के नॉस्टेल्जिया की अच्छी महक चाहिये तो थोड़ा दम भरिये और दम लगा के हइशा (dam laga ke haisha movie) देख ही आइये।