ये ‘निर्णय’ आखिर किसका है ?

Documentary film by Pushpa Rawat

Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm

पुष्पा रावत कैमरा लेकर निकलती है निम्न मध्यवर्गीय परिवार की युवा लड़कियों की उन इच्छाओं की खोज में जिन्हें रोजमर्रा की जिन्दगी जीते हुए उनके चेहरे, उनके व्यवहार में खोज पाना मुश्किल है। वो इच्छाएं या तो धीरे धीरे मर रही हैं या फिर उन पर थोप दी गई जिम्मेदारियों के मलवे में इतनी नीचे दबी हुई हैं कि कई बार ये इलहाम तक हो जाता है कि वो हैं भी या नही।

उस कमरे में जिसकी दीवार का रंग एकदम फीका पड़ा हुआ है, जिसका आकार एकदम छोटा है, कुछ लड़कियां जिनमें शहरी आत्वविश्वास नहीं है, एक गाने पर एकदम बेलौस थिरक रही हैं। ले ले ले ले मज़ा ले। ये सारी लड़कियां अगर किसी गाने को अपना लाइफ एन्थम या जीवन गीत बनाना चाहती होंगी तो शायद वो यही गाना होगा। क्योंकि यह मज़ा ही एक ऐसी चीज़ है जो एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की लड़की या महिला होने के नाते बड़े आधिकारिक रुप से उनके जीवन से गायब कर दिया गया है। पुष्पा रावत  और अनुपमा श्रीनिवासन द्वारा निर्देशित वृत्तचित्र ‘निर्णय’ का यह दृश्य जैसे उन कुछ सेकंडों में हमसे एकदम प्रभावी तरीके से पूछ लेता है कि ये जो मज़ा उनकी जि़न्दगी से गायब है, उसे गायब करने का निर्णय आंखिर है किसका ?

पुष्पा रावत कैमरा लेकर निकलती है  निम्न मध्यवर्गीय परिवार की युवा लड़कियों की उन इच्छाओं की खोज में जिन्हें रोजमर्रा की जिन्दगी जीते हुए उनके चेहरे, उनके व्यवहार में खोज पाना मुश्किल है। वो इच्छाएं या तो धीरे धीरे मर रही हैं या फिर उन पर थोप दी गई जिम्मेदारियों के मलवे में इतनी नीचे दबी हुई हैं कि कई बार ये इलहाम तक हो जाता है कि वो हैं भी या नही।

पुष्पा रावत तकरीबन 3 साल तक 3 महिलाओं के अन्तर्मन को समझने के लिये उनसे लगातार संवाद करती हैं और उन संवादों के अहम हिस्सों को फिल्माती हैं। ये संवाद उनकी इच्छाओं के बारे में हैं, उनके वजूद के बारे में हैं, उनके फैसलों के बारे में हैं और इन संवादों में लाचारी है और अपने मन की कर गुजरने की एक दबी रह गई इच्छा है।
एक लड़की जिसने एक लड़के से प्यार किया और इसलिये तिरस्कृत कर दी गई कि लड़के का परिवार उसे नहीं चाहता था। प्यार तो लड़के ने भी किया लेकिन वो सामाजिक-पारिवारिक नैतिकता के मापदंडों में अपनी प्रेमिका को वरियता नही दे पाया। जिन मां-बाप ने पाल पोषकर बड़ा किया है, उनके लिये भी तो मेरी जिम्मेदारी बनती है। उनकी मर्जी के बिना मैं कैसे ये निर्णय ले सकता हूं। लड़के के इस सवाल पर ल़ड़की उससे एक जायज सवाल पूछती है जो उसे निरुत्तर कर देता है। मेरे लिये तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती ?

एक लड़की है जिसे गाना बहुत पसंद है। पर अब उसने सिंगर बनने के ख्वाब छोड़ दिये हैं। वो शादी कर चुकी है। वो अपने माता-पिता से खफ़ा है कि वो चाहते तो उसे सिंगर बनने का मौका दे सकते थे। उसे ट्रेनिंग दिलवा सकते थे। लेकिन उसकी ये इच्छा तब उन्हें बेवजह लगी। आज जब उसके मुताबिक उम्र उसे ये इजाजत नहीं देती कि वोघर-गृहस्थी के अलावा कुछ नया सोचे तब वो सपोर्ट करते हैं। लेकिन वक्त ही निकल गया तो उस सपोर्ट का आंखिर फायदा ही क्या है ?

एक औरत है जिसकी शादी हो चुकी है वो अपने बच्चे को अपनी सारी इच्छाओं का केन्द्रबिंदु बना चुकी है। मैं तो अपनी इच्छा से नहीं जी सकी पर इसे इसके मन की जिन्दगी दे पाने की कोशिश करुंगी। ये भाव एक तरह की लाचारी में आता है। शादीशुदा मध्यवर्गीय और निम्न वर्गीय परिवारों में महिलाओं की ये सोच एक आम बात है। उनके जीवन के फैसले लेने का हक उनसे इस तरह छीन लिया जाता है कि वो अपनी इच्छाओं को परिवार और बच्चों की जिम्मेदारियों में कहीं होम कर देने को विवश हो जाती हैं। वो देखने में खुश लगती है, उनसे बात करके भी ये नहीं पता चलता कि वो किसी बात से आहत हैं। लेकिन उनकी बातें सुनिये। उनमें बच्चों की पढ़ाई का जि़क्र होगा, पति के आॅफिस का जि़क्र होगा, ससुर की दवाइयों का जि़क्र होगा पर जब अपनी इच्छाओं की बात आएगी तो उसका जि़क्र कहीं नहीं होगा। उनकी दिनचर्या में अपनी पसंद की किताब पढ़ना, अकेले फिल्म देखने जाना, कुछ दिन कहीं घूमने निकल जाना, ये सब कहीं नहीं होगा। वो किचन में आटे की पराद से जूझती हुई मन ही मन कुछ गुनगुनाकर अपनी इच्छाओं को परिवार की जिम्मेदारियों के साथ कहीं गूंथ देती है। और अपनी इच्छाओं की मौत की संणाध तक किचन में नहीं फैलने देती।

पुष्पा रावत महिलाओं की उन्हीं मृतप्राय इच्छाओं को जिलाने की कोशिश करती हैं। फिल्म के एक दृश्य में एक लड़की है जो मुस्कुराते हुए कहती है- बाहर कुछ देर रह गई तो डर लगता है, ऐसा लगता है जैसे मम्मी बुला रही है।

ये एक तरह की मौन सीमाएं हैं जो महिला होने के नाते खुद ही लद गई हैं। वो अपने मन के कपड़े पहनने की सोचती हैं तो पीछे से कोई अदृश्य ससुर जी उन्हें अपनी मूक आवाज़ में टोक देते हैं और वो छोटे गले के ब्लाउज के साथ साड़ी पहन लेती हैं और सर पे पल्लू रख देती हैं। वो खरीददारी करते हुए किसी पराये मर्द से मिलती हैं और मुस्कुराकर उससे बात करना चाहती हैं तो कोई अदृश्य पति एक मूक आदेश दे देता है कि मुस्कुराओ मत। वो सहमती हुई अपनी मुस्कुराहट को होंठों के बीच दबाकर दबे पांव घर लौट आती हैं। वो कोई पसंद की कहानी पढ़ना चाहती हैं तो याद आता है बिट्टू को होमवर्क भी तो कराना था, वो सुबह की सैर पे निकलता चाहती है पर रुक जाती हैं कि उनके लिये नाश्ता भी तो बनाना है कहीं आॅफिस के लिये देर न हो जाये। वो अपनी जिन्दगी के तकरीबन सारे निर्णय अपने पिताओं, पतियों, बच्चों, सासों, ससुरों और समाज पर छोड़ देती हैं और उनके द्वारा अपने लिये लिये गये निर्णय को अपनी जिन्दगी मानकर जीने लगती हैं।

वो 12 से 22 साल की हो जाती हैं और सोचती रह जाती हैं कि इन दस सालों में उनकी जिन्दगी में आखिर क्या बदला ?

फिल्म निर्णय दरअसल उसी बदलाव को कुछ महिलाओं के जीवन में झांककर समझने की कोशिश करती है। ये कोशिश अपने में एक मुश्किल कोशिश है क्योंकि जिन चरित्रों को फिल्माया गया है वो इस बात को जानते हैं कि एक कैमरा उन्हें शूट कर रहा है। बावजूद इसके फिल्म का कोई भी चरित्र बनावटी नहीं लगता। ऐसा नहीं लगता कि ये कोई ड्रामा चल रहा है। निर्देशक की सबसे अच्छी बात यही है कि वो कैमरे को भी फिल्म का एक पात्र बनाने में कामयाब हो पाई हैं। और ये एकदम इत्मिनान से गहरी बात करके अपने चरित्रों से रिश्ता बनाये बिना नहीं हो सकता। कैमरा कभी डब्बे जितने छोटे कमरे में घूमता है, कभी छोटे से किचन में आटे के बरतनों की थाह लेता है, कभी खेतों में झुरमुटों के बीच घास काटते हाथों के इर्द-गिई टहलता है और कभी एक झील किनारे अपनी जि़न्दगी के निर्णय की पड़ताल करते एक प्रेमी के बगल में जाकर बैठ जाता है।

एक दृश्य में कहीं कैमरे के पीछे मौजूद पुष्पा फिल्म की एक महिला पात्र से पूछती हैं- क्यूं मेरे आज मेरे हाथ में कैमरा है क्या सिर्फ इसलिये मैं तुमसे अलग हो गई ? भाव यही है कि ये कैमरा भी कहां कुछ खास बदल पाता है उनकी जि़न्दगी में। आज कैमरा भले उनके हाथ में है पर उस पर जो दृश्य फिल्माये जा रहे हैं क्या वो दृश्य उनकी मर्जी के हैं ? फिल्म एकदम धारदार हथियार की तरह इस सवाल को दिल पर उतार देती हैं।

पुष्पा रावत की ये पहली फिल्म है तो उसकी अपनी कुछ सीमाएं भी हैं। फिल्म तकनीकी रुप से और खासकर साउन्ड के मामले में उतनी साउन्ड नहीं लगती लेकिन फिल्म की कथावस्तु इस कमी की काफी हद तक क्षतिपूर्ति कर देती है।

उत्तराखंड में पहाड़ी और मैदानी इलाकों के मीटिंग पाॅइंट यानि हल्द्वानी में आयोजित पहले फिल्म महोत्सव में दिखाई गई इस 56 मिनट की फिल्म को देखना वृत्तचित्र देखना पसंद करने वालों के लिये एक ज़रुरी अनुभव है और इस सरीखी फिल्म को दिखाया जाना हमारे पुरुषवादी समाज की एक ज़रुरत भी।

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