अकीरा कुरुसावा की ड्रीम सीरीज़ की फ़िल्में – Akira Kurosawa dreams

Akira Kurusowa Dreams

Last Updated on: 5th July 2025, 01:38 pm

अकीरा कुरुसावा की ड्रीम्स (Akira Kurusiwa dreams) सीरीज़ एक लोकप्रिय फ़िल्म सीरीज़ है।

कई बार हम सपने देखते हैं और जब जागते हैं तो सोचते हैं जो हमने देखा उसका अर्थ आख़िर था क्या। पर अक्सर ज्यादातर सपनों को हम भुला ही देते हैं ऐसे जैसे उन्हें हमने कभी देखा ही न हो। पर क्या आपको नहीं लगता कि किसी दूसरे के सपने अपनी आंखों से देखना कितना रोमांचक अनुभव हो सकता है। और वो भी तब जब सपने किसी सुन्दर फिल्म में फिल्मा लिये गये हो और वो भी अकिरा कुरुसावा जैसे निर्देशक के द्वारा।


कुरुसावा की फिल्म ड्रीम्स (Akira kurosawa dreams)

कुरुसावा की फिल्म ड्रीम्स (Akira Kurosawa dreams) एक ऐसा ही अनुभव है। कहा जाता है कि ये पूरी फिल्म अकीरा कुरुसावा के उन सपनों के बारे में है जो उन्होंने अलग अलग समय में देखे। फिल्म में 8 छोटी छोटी कहानियां हैं, मुश्किल से पांच पांच मिनट की। इन कहानियों में कुरुसावा मनुष्य और प्रकृति के बीच के तारतम्य के असन्तुलित से हो जाने के लिये अपनी चिन्ता जाहिर करते मालूम होते हैं।

सभी कहानियों के पात्र किसी न किसी रुप में या प्रकृति से जुड़े हैं या प्राकृतिक जीवनदर्शन से। इन कहानियों में कहीं प्रकृति अपने पूरे साफ सुथरे नैसर्गिक रुप में दिखाई देती है तो कहीं उसके साथ हुए खिलवाड़ से पनपी विभीषिका पूरे भयावह रुप में सामने आ जाती है। और उसके समानान्तर चलता है आनन्द और विभीषिका दोनों से जूझता इन्सान। ये कुरुसावा के सपनों का फिल्मांकन तो है ही साथ ही हमारे इर्द गिर्द की दुनिया की चिन्ताएं भी हैं। भले इनका रुप प्रतीकात्मक है पर ये चिन्ताएं आज के सन्दर्भ में भी उतनी ही प्रासांगिक हैं। और इस लिहाज से ये फिल्म महत्वपूर्ण हो जाती है।


वो बारिस में घुलती सूरज की चमक

Sunshine through rain फिल्म की पहली कहानी है। फिल्म को देखकर लगा कि कई बार लोकोक्तियां या कहावतें जिन्हें हम नितान्त क्षेत्रीय समझ रहे होते हैं वो विश्वव्यापी भी हो सकती हैं। हम अपने घर में अक्सर सुना करते थे कि जब धूप और बारिस दोनों साथ साथ हो रही होती हैं तो उस वक्त लोमणियों की शादी होती है।

इस कहावत के जापानी वर्जन को फिल्म के इस हिस्से में देखा जा सकता है। एक बच्चा जिसकी मां उसे इस मौसम में बारिश में जाने से मना कर रही है पर बच्चा जाता है और जब वो घर लौटता है तो उसकी मां उसे बताती है कि एक लोमड़ी वहां आयी थी जो उसे एक चाकू देके गई है। माने यह कि वे चाहती है कि तुम इससे खुद को मार लो। मां बच्चे से कहती है कि वो लोमड़ी से माफी मांग ले हो सकता है कि वो माफ कर दे।

बच्चा लोमड़ी तलाश में घर से जंगल की तरफ चला आता है। और वहां एक इन्द्रधनुश है फूलोें के बगीचे के इर्द गिर्द पहाड़ों के बीच कहीं उगता हुआ। और बच्चा आगे बढ़ा जा रहा है अनन्त की ओर। फिल्म के इस हिस्से में सफेद कुहासे के बीच से उभरते लोमणियों के प्रतीकात्मक चेहरे जब पार्श्व में बजते किसी जापानी लोकसंगीत के साथ आगे बढ़ रहे होते हैं तो एक अजीब किस्म की रहस्यात्मक अनुभूती होती है। और उस मासूम बच्चे के लिये एक खास किस्म की सहानुभूति का भाव मन में पैदा होने लगता है न जाने क्यों।


आड़ू का बगीचा

The peach orchards फिल्म की दूसरी कहानी है। ये कहानी गुड़ियाओं के एक त्योहार के बारे में है। माना जाता है कि इस त्योहार को तब मनाया जाता है जब आड़ू के बगीचों में सुन्दर गुलाबी फूल उगते हैं। और त्योहार में प्रदर्शित की गई हर गुड़िया एक आड़ू के पेड़ का प्रतीक मानी जाती है। लेकिन एक छोटा सा लड़का इस बार त्योहार में खुश नहीं है। क्योंकि उसके परिवार ने इस बार आड़ू के बगीचे से सारे पेड़ काट दिये।

बच्चा एक लड़की के पीछे पीछे कटे पेड़ों वाले उस बगीचे में जाता है और देखता है कि गुड़ियाएं आड़ू के पेड़ों की आत्माओं में बदल गई हैं। और बच्चे को बताती है कि कैसे उन्हें काट दिया गया। लेकिन जब उन्हें महसूस होता है कि बच्चे को उनका खिलना कितना अच्छा लगता था वो फैसला करते हैं कि एक बार उसे फिर से आड़ू के उस खिले बगीचे का दर्शन करा दिया जांये। बगीचा एक बार फिर खिल जाता है पर थोड़ी देर बाद ही वहां सारे कटे हुए पेड़ वापस आ जाते हैं।

वो लड़की जिसके पीछे बच्चा यहां आया था एक बार फिर दिखाई देती है। और थोड़ी देर में वो भी गायब हो जाती है और उसकी जगह एक गुलाबी फूलों वाला आड़ू का पेड़ वहां उग जाता है।

द बिजार्ड और द टनल फिल्म की अगली दो कहानियां हैं।


मौत के वो काले परिंदे

Crows  इस सिलसिलेवार हिस्से की पांचवी कहानी है। इस भाग में मशहूर चित्रकार विनसेंट वानगाग की पेटिंग के जरिये उनके जीवन के एक खास हिस्से को बड़े ही दार्शनिक तरीके से कुरुसावा जीवन्त कर देते हैं। फिल्म के इस हिस्से में विन्सेन्ट वानगाग की भूमिका में विश्वविख्यात फिल्म निर्देशक मार्टिन स्कोर्सीजी खुद मौजूद हैं। फिल्म शुरु होती है वानगाग की एक पेटिंग से जिसके अन्दर एक लड़का किसी को ढूढ़ते हुए प्रवेश कर जाता है। वो लड़का वानगाग की कई पेंटिंग्स से गुजरता है और अन्त में उसे एक बूढ़ा आदमी पेंटिंग बनाता हुआ दिखाई दे जाता है।

इस आदमी के दोनों कानों में पटिटयां बंधी हुई हैं और वो अपने चित्रों की दुनिया में खोया पेंटिंग बनाये जा रहा है। लड़का उस आदमी से पूछता है कि आपके कानों में पटिटयां क्यों बंधी हुई हैं तो वा आदमी उसे बताता है कि मैने अपने दोनों कान ही काट लिये क्योंकि ये कान मुझे मेरा काम करने में रुकावट पैदा करते थे।

माना जाता है कि वानगौग ने अपने जीवन के अन्तिम समय में इसी तरह अपने कान काट लिये थे और अपने आंखिरी समय में वो जीवन से इतने परेशान हो गये थे कि उन्होंने आत्महत्या ही कर ली। क्रोज के आंखिरी दृश्य में कुछ कौवे आसमान को चीरते हुए उड़ते चले आते हैं। सम्भवतह कुरुसावा ने इस दृश्य में वौनगौग की आत्महत्या को ही प्रतीकात्मक रुप में दिखाया है। वानगाग की पेंटिग्य को फिल्म का यह हिस्सा जिस तरह से जीवन्त कर देता है वो सचमुच एक कमाल का अनुभव लेने जैसा है।


माउन्ट फूजी का लाल सच

Mount Fuzi in red फिल्म की छटी कहानी है जिसमें दिखाया गया है कि कैसे माउन्ट फूजी में स्थित न्यूक्लियर प्लांट में फैले रेडियेशन के चलते इतना जहरीला प्रदूषण हुआ कि आसमान लाल हो गया। और वहां के सभी लोगों ने समुद्र में शरण लेकर मौत को गले लगाना बेहतर समझा। अन्त में तीन लोग एक आदमी औरत और बच्चा ही  रह गये हैं जो लगभग जान ही चुके हैं कि जल्द ही उनकी मौत भी तय है। और उनके भीतर पसरा मौत का डर इस कहानी में साफ देखा जा सकता है।

फिल्म की अगली दो कहानियां जापान में हुए परमाणु हमलों की वजह से हुए ज़हरीले विकीरण पर कुरुसावा की चिन्ता को दिखाती हैं। ये कहानिया उस विभीषिका की सांकेतिक अभिव्यक्ति हैं जो जापान ने सम्भवतह उन परमाणु हमलों की वजह से झेली।


दैत्य जो रो रहे हैं

The weeping demon फिल्म की सांतवीं कहानी है जिसमें दिखाया गया है कि एक पहाड़ पर कई ऐसे दैत्यनुमा लोग बुरी तरह चीख रहे हैं। अजीब सी आवाजें निकालेने वाले इन एक सींग वाले दैत्यों में से एक दैत्य लड़के को बतात है कि ये लोग न्यूक्लियर रेडियेशन के शिकार हैं।

इसी विकीरण की वजह से इन लोगों की एक सींग उग आई और ये लोग भटकती हुई आत्माएं बन गये। और इनका सबसे बड़ा दुख ये है कि अब ये मर भी नहीं सकते और इसी तरह भटकते रहना इनकी मजबूरी है।


वो गांव पनचक्कियों वाला

Village of the watermills इस सीरीज़ की अगली कहानी है। एक सुन्दर सा गांव जहां हौले हौले एक नदी बह रही है। पेड़ों से मन्द मन्द हवा बहती आ रही है। और नदी और हवा के बहते जाने के बीच कई पनचक्कियां चल रही हैं। कुछ बच्चे हैं जो एक पत्थर पे फूल चढ़ा रहे हैं और वो नौजवान लड़का जो उन्हें देख रहा है फूल चढ़ाते हुए।

लड़का इतने अच्छे वातावरण में बड़ी राहत महसूस करते हुए आगे बढ़ता है वहां उसे एक बूढ़ा सा आदमी दिखाई देता है जो पनचक्की बना रहा है। फिल्म के इस हिस्से में उस बूढ़े आदमी और इस लड़के के बीच जो बात होती है वो बेहद रोचक है। उस बात को सुनने के बाद आपको महसूस होगा कि आदमी अगर चाहे तो पूरी तरह प्राकृतिक संसाधनों की मदद से ही जी सकता है बिना प्रकृति को नुकसान पहुंचाये। ये भी कि इस तरह जीते हुए आदमी अपनी मौत को एक जश्न के रुप में मना सकता है।

संवाद की शुरुआत में लड़का पूछता है कि इस गांव का नाम क्या है तो बूढ़ा जवाब देता है हम इसे गांव ही कहते हैं। इसका कोई नाम नहीं है। लड़का बिजली के बारे में पूछता है तो बूढ़ा आदमी जवाब देता है कि हमें बिजली की जरुरत महसूस ही नहीं होती। लड़का फिर पूछता है कि यहां रातें तो बड़ी गहरी होती होंगी। तब आप क्या करते हैं? बूढ़ा आदमी जवाब देता है कि रातें गहरी काली ही होनी चाहिये।

तभी तो हम आकाश में बिखरे तारोें को साफ साफ देख पायेंगे। अन्धाधुन्ध हो रहे आविष्कारों पर सवाल उठाते संवादों के सिलसिले के अन्तिम पड़ाव में पहुचते हुए फिल्म जिन्दगी को एक को इत्मिनान से जिये गये पर्व और मौत को किसी जश्न की तरह दिखाती हैऔर बताने की कोशिश करती है कि अगर प्रकृति की नैसर्गिकता बर्करार रखते हुए और उसपे अपनी शर्तें न थोपते हुए सरलता से जिया जाये तो मौत को भी उत्सव की तरह अपनाया जा सकता है।

क्योंकि तब न मौत आने में जल्दी करेगी, न हम मौत को बुलाने की जल्दबाजी में रहेंगे। ये सब उसी तरह होगा जैसे प्रकृति। बिल्कुल अपनी प्राकृतिक निरन्तरता में, अपने समय से।

फिल्म के इस हिस्से के आंखिरी पलों में 103 साल का बूढ़ा आदमी जो 99 साल की औरत की अन्तिम यात्रा के जश्न में शामिल होने जा रहा है नौजवान से कहता है कि मेरे खयाल से मेरी उम्र मौत को अपनाने की बिल्कुल सही उम्र है। और अन्त में संभवतः जापानी लोकगीत की सुन्दर सी धुन के साथ पारम्परिक वाद्ययंत्रों और एक समान पोशाक पहने छोटे छोटे बच्चों से लेकर सौ साल से बूढ़े लोगों के जुलूस की जुगलबन्दी फिल्म के इस हिस्से को अहसास कर पाने की हद तक दर्शनीय बना देती है।


अकिरा कुरुसावा के सपनों (Akira Kurosawa dreams) की ये फिल्मी दुनिया न केवल फिल्म देखने की सुखानुभूति देती है बल्कि एक सरल सन्देश भी दे जाती है कि प्रकृति और इन्सान का रिस्ता मानवीय रिस्तों से अलहदा नही है। जब तक हमें उसकी गरज है तब तक ही उसे हमारी फिक्र। जिस दिन इन्सान ने प्रकृति के बारे में सोचना छोड़ दिया उस दिन प्रकृति भी हमें ऐसे तरसाना शुरु कर देगी। और इसका असर हमारे सपनों में भय बनकर समा जायेगा। कुरुसावा के ये सपने इसी असर की असरदार नुमाईश हैं।

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