Last Updated on: 11th July 2025, 06:42 am
सारे आक्रोश (Aakrosh film review) महज एक दुर्घटना बनकर समाप्त हो जाते हैं। ये आक्रोश भी कुछ ऐसा ही था। गोविन्द निहिलानी की इस फ़िल्म को देखकर ताजा ताजा बस यही समझ में आता है कि आक्रोश की अपनी असल आवाज उसके सन्नाटे में दबी होती है। मगर अक्सर इस चुप्पी के पीछे जो आक्रोश दबा होता है वो इतना खामोश रहता है कि उसका होना न होना बनकर समाप्त हो जाता है। आदिवासियों पर होने वाले अत्याचार पर बनी इस पूरी फ़िल्म में सन्नाटा एक तकनीक की तरह प्रयोग हुआ है।
क्या है आक्रोश फ़िल्म की कहानी (Aakrosh film review)
भारतीय समानांतर सिनेमा की इस प्रतिनिधि फ़िल्म फ़िल्म में भीखू लहानिया (Om Puri) कुछ नहीं बोलता। लेकिन उसके हावभाव उसके आक्रोश को खुद कह जाते हैं। भीखू लहानिया को उसकी पत्नी नागी (Smita Patil) की हत्या के लिये आरोपित किया जाता है। भास्कर कुलकर्नी (Naseeruddin Shah) को उसका सरकारी वकील बनाया जाता है। दशाने (Amrish Puri) अभियोजन पक्ष के वकील हैं। जो कुलकर्नी के गाइड भी हैं।
कुलकर्नी वकालत के पेशे में नया है। उसका ये पहला केस है, इसलिये वो डरा हुआ है। दूसरी ओर लहानिया उस हत्या के बारे में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है। कुलकर्नी के सामने आते ही वो बुत बन जाता है। धीरे-धीरे कुलकर्नी केस में ज्यादा रुचि लेने लगा है। क्योंकि उसे लगता है कि लहानिया ने हत्या की ही नहीं है।
भास्कर मूलतः एक एलीट इन्टलेक्चुअल समाज का प्रतिनिधित्व करने वाला वकील है लेकिन एक सरकारी वकील के तौर पर वह लहानिया के मामले की जड़ों तक जाकर पड़ताल करना चाहता है। इसके लिये वह लहानिया के घर जा पहुंचता है।
वहां उसका बूढ़ा बाप है जो उसे कुछ भी बताने को तैयार नहीं है। उसकी आँखें में एक अजीब सा डर है और उस डर का कारण उसकी जवान बेटी है। लहानिया के जेल जाने के बाद जिसे देखने वाला उसके अलावा और कोई नहीं है। इसलिये उसने अपनी जबान सिल ली है।
भास्कर को अब सच्चाई बताने वाला कोई नहीं है। लेकिन उसके इस तरह बार बार पड़ताल करने के कारण कुछ लोग उसके पीछे लग गये हैं जो उसपर नज़र रखे हुए हैं। नौमत यहां तक पहुंच जाती है कि उसपर हमला किया जाता है। वो ज़ख़्मी होकर अपने सीनियर वकील के पास जाता है। वो उसे सलाह देते हैं कि लहानिया का मामला एकतरफा है इसलिये वो उस केस से बैकआउट कर ले। लेकिन भास्कर कोर्ट से अपने लिये सुरक्षा की गुजारिश करता है। उसे एक गार्ड दे दिया जाता है।
इस बीच पड़ताल करते हुए आदिवासियों के लिये काम करने वाले कुछ कम्यूनिस्ट कार्यकर्ताओं के ज़रिए भास्कर को सच्चाई का पता चलता है कि लहानिया की पत्नी की हत्या के पीछे कौन लोग हैं। कि किस तरह कुछ प्रभावशाली जनप्रतिनिधियों ने उसका बलात्कार और फिर हत्या कर दी। ये लोग उनमें से ही हैं जिनसे भास्कर की रोज मुलाकात होती है। अब भास्कर को सच्चाई पता है पर सबूत उसके पास नहीं हैं। और हमारी न्याय व्यवस्था केवल सबूतों पर भरोसा करती है सत्य पर नहीं।
एक दिन कुछ लोग लहानिया के घर में घुसकर उसके बाप और उसकी बहन को धमकाते हैं। वो दोनों डरे हुए हैं। लेकिन भास्कर की लहानिया के लिये मेहनत को देखकर उनके मन में एक उम्मीद जगती है। पर वो उम्मीद भी पूरी फ़िल्म में अव्यक्त है। एक दिन बीहड़ जंगलों के रास्ते कोर्ट की ओर जाते हुए रास्ते में लहानिया के बूढ़े बाप की मौत हो जाती है। लहानिया की बहन भागती हुई कोर्ट पहुंचती है।
फ़िल्म समाप्ति की ओर है। उसके पिता का अन्तिम संस्कार किया जा रहा है। चिता में आग लगने वाली है कि तभी लहानिया अपनी बहन की ओर देखता है। उसकी आंखों में एक भयानक किस्म का डर तैर जाता है। वो पास में पड़ी एक कुल्हाड़ी उठाता है और अपनी बहन के सर पर एक जोरदार प्रहार कर देता है। फ़िल्म यहां समाप्त हो जाती है।
आदिवासी लोगों के दमन की कहानी
आक्रोश का यह अन्तिम दृश्य अपनी स्वर हीनता में आक्रोश की एक बड़ी दार्शनिक सी व्याख्या करता है कि दरअसल आक्रोश के मूल में बेइन्तहा डर छुपा होता है। एक ऐसा डर जिसमें असहायता घुली होती है। मदद की सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी होती हैं और ऐसे में आदमी अपनी सारी कमजोरियों को खत्म कर देना चाहता है। ताकि जब वह आक्रोश को बदले की शक्ल दे तो ऐसी कोई वजह न बचे जो उसे किसी भी तरह कमजोर करे और बदले की प्रक्रिया में रुकावट पैदा करे।
अपनी बहन की हत्या कर लहानिया अपनी ऐसी ही एक कमजोरी को समाप्त कर देता है। लेकिन ये पूरी फ़िल्म आदिवासी समाज के एक ऐसे वर्ग की कहानी कहती है जो प्रभावशाली लोगों द्वारा दबाया कुचला जाता रहा है। जिसे सच कह पाने की हिम्मत नहीं है। जिसके अन्दर आक्रोश बहुत है लेकिन ज्यादातर मामलों में वो आक्रोश बेजुबान है इतना कि अपने भरे पूरे अस्तित्व के बावजूद भी देश के किसी कोने से न वो सुनाई देता है न कहीं दिखाई देता है।
तकनीकी तौर पर बेहतर हो सकती थी फ़िल्म
आक्रोश तकनीकी तौर पर उतनी अच्छी फ़िल्म नहीं है न ही उसके फ़्रेम्स इतने सिनेमैटिक हैं कि उनपर नज़रें ठहर सकें। फ़िल्म को देखने से पहले ये दर्शक अगर ये मूड बना ले कि उसे एक गम्भीर फ़िल्म देखनी है जो एक सामाजिक सच से उपजी है तो उसे फ़िल्म अच्छी लग सकती है। बॉलीवुड फ़िल्मों की तर्ज पर कोई मसाला ट्रीटमेंट फ़िल्म में देखने को नहीं मिलता।
पूरी फ़िल्म मन में एक गहरा असन्तोष पैदा करती है। एक नकारात्मक सी संवेदना फ़िल्म देखने के बाद दर्शक के अन्दर भरी चली जाती है। फ़िल्म एक डॉक्यूमेंट सा लगती है और लगता है ये सारी वजहें फ़िल्म को कमज़ोर करती हैं।
मगर दूसरी तरह से सोचें तो फ़िल्म हमें मनोवैज्ञानिक तौर पर उसी असन्तोष से भर रही है जो लहानिया, उसकी बहन और उसके बूढ़े बाप के भीतर गहरा समाया है। इस तरह आक्रोश उनके भीतर छिपे आक्रोश को महसूस कर पाने की समझ देखने वाले के अन्दर भी पैदा कर देती है। इस लिहाज से फ़िल्म अपना वैचारिक उद्देश्य तो पूरा कर ही लेती है।