एक बवंडर से उठी फिल्म

Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm

राजस्थान की भंवरी देवी को शायद आप अब तक न भूले हों। 1992 में राजस्थान की भतेरी गांव की इस महिला का गांव के ही कुछ उच्च जाति के लोगों ने बलात्कार किया। वजह यह थी कि एक छोटी जाति की महिला होने के बावजूद उसने गांव में हो रहे बाल विवाह को रोकने के लिए सरकार की मदद करनी चाही। केन्द्र सरकार के महिला विकास कार्यक्रम के तहत साथिन नाम की संस्था के साथ उसने सक्रिय रुप से गांव की सामाजिक बुराईयों के उन्मूलन का बीड़ा उठाया। जिसका खामियाजा उसे अपनी आबरु लुटाकर उठाना पड़ा।

लेकिन कहानी का और शर्मनाक पक्ष तब सामने आता है जब हमारे देश
की बिकी हुई कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और यहां तक कि न्यायपालिका का उसके साथ पूर्वाग्रही व्यवहार होता है। जज फैसला देता है कि एक उंची जाति का व्यक्ति एक नीची जाति की महिला का बलात्कार कर खुद के सामाजिक सम्मान को चुनौती नहीं दे सकता। ये हमारी धार्मिक परम्पराओं के खिलाफ है। यहां तक कि जज अपने 22 पेज के फैसले में एक और तर्क देते हैं कि यह मामला इसीलिए भी सच नहीं लगता कि एक आदमी जिसने अपनी पत्नी के साथ अग्नि को साक्षी मानकर उसकी रक्षा की कसमें खाई हैं वो कैसे अपनी आंखों के सामने उसके साथ ऐसा कुकर्म होने दे सकता है।

इसीलिये भंवरी देवी का मामला झूठा है। और उसे न्याय नहीं मिलता। क्षेत्र के पुलिस विभाग से लेकर एमएलए और यहां तक कि जज तक उंची जाति के दबाव में आकर उसके खिलाफ फैसला देते हैं। पर वह टूटती नहीं। उसका संघर्श जारी रहता है। खुद प्रधानमंत्री उसके मामले में रुचि लेते हैं। मामला सीबीआई के पास चला जाता है। एक गांव का मुद्दा देषव्यापी मुहिम में मदल जाता है। देश भर के एनजीओ और महिला संगठन मुद्दे को भुनाने में जुट जाते हैं। भंवरी देष भर के महिला संगठनों के लिए आईकन बन जाती हैं। उसकी बहादुरी की चर्चाएं आज भी होती हैं। लेकिन न्याय उसे नहीं मिलता।

उस मामले ने उन दिनों एक बवंडर खड़ा किया था और इस बवंडर को जग मुंदरा ने इसी नाम से फिल्मा लिया। तहलका की एक रिपोर्ट की मानें तो भंवरी जग मुंदरा की सन 2000 में बनी इस फिल्म से नाखुश हैं। उसका कहना है कि उसको न्याय दिलाने में फिल्म कोई भूमिका नहीं निभाती। मुंदरा ने उसको न्याय दिलाने का वादा किया था। लेकिन फिल्म बना लेने के बाद वो सब भूल गये।

बवंडर इसी सच्ची घटना पर आधरित एक फिल्म है जिसके केन्द्र में भंवरी देवी की कहानी है। फिल्म में भंवरी सांवरी हो गई है। सांवरी राजस्थान के एक साधारण से गांव की बड़ी साधारण सी औरत है। जिसे इतना ही मालूम है कि वो गांव की एक औरत है जिसको गांव की साधारण परंम्पराओं को आगे बढ़ाते हुए एक औरत बनकर जीना है। फिल्म शुरु होती है बालविवाह के एक सार्वजिनक आयोजन से जहां पर कई छोटे बच्चे आपस में ब्याहे जा रहे हैं। हमेशा की तरह इस तरह के विवाह गांव की परम्परा में शुमार हैं। जिसमें असामान्य जैसा कुछ भी किसी को नहीं लगता। फलतह सांवरी को भी नहीं। गांव में एक एनजीओ है जिसको एक महिला शोभा माथुर साथिन नाम से चला रही हैं। ये महिला एक दिन सांवरी से मिलने आती हैं और उससे अपने एनजीओ से जुड़कर बालविवाह के खिलाफ आवाज उठाने का आग्रह करती है। लेकिन सांवरी को इस बात से कोई खास लेना दिना नहीं है। उसे अपने साधारणत्व से बाहर निकलने की कोई खास वजह नजर नहीं आती। महिला निराश होकर चली जाती है। लेकिन सांवरी के अन्दर कुछ ऐसा है जो उसे गांव की अन्य साधारण महिलाओं से अलग बनाता है। उसके अन्दर बड़ा गजब को आत्मविश्वास है। वो अपने अधिकार के लिये लड़ना जानती है। सांवरी अपनी बेटी को पढ़ाना चाहती है। उसका पति सोहन शहर में रिक्सा चलाता है। उसे अपनी पत्नी से बहुत प्यार है। वह शहर में रिक्सा चलाने के बजाय यहीं गांव में रहकर खेती करना चाहता है। एक दिन सांवरी को लगता है कि उसे एनजीओ वाली महिला का साथ देना चाहिये और वो साथिन के आफिस जाकर उससे मिलती है। अब सांवरी साथिन की सक्रिय सदस्य हो गई है। उसके घर में साथिन का बोर्ड लग गया है। घर वाले भी इस बात से खुश हैं। इसी बीच गांव की ही बड़ी जाति का एक आदमी गांव की किसी लड़की के साथ छेड़छाड़ करता है। लड़की इसकी खबर साथिन के सदस्यों को देती है। सांवरी के नेतृत्व में इस घटना के विरोध में एक जुलूस निकलता है। और ये महिलाएं उस आदमी की पिटाई करती हैं। इस घटना के बाद से सांवरी बड़ी जाति के प्रभावशाली पुरुषवादी मानसिकता के लोगों के आंखों की किरकिरी बन जाती है।

एक दिन फिर गांव में बाल विाह का आयोजन हो रहा होता है। इसकी खबर पुलिस को हो जाती है। पुलिस वहां आती है और इन्सपैक्टर बताता है कि ये खबर उसे गांव ही से किसी ने दी है। गांव का सरपंच समझ जाता है कि यह काम सांवरी का ही है। उस रोज वो अपने परिवार के आदमियों के साथ सांवरी के घर जाकर तोड़ फोड़ करता है। और उसे धमकाता है कि सांवरी अपनी औकात में रहे। एक दिन सांवरी अपने पति के साथ अपने बंजर खेत में काम कर रही रही होती है। कि सरपंच अपने आदमियों के साथ वहां आ धमकता है। उसके पति को पीटने के बाद उसकी आंखों के सामने सभी बारी बारी से उसका बलात्कार करते हैं। और वहां से चले जाते हैं। सांवरी बुरी तरह टूट जाती है। घटना की रात वो सो नहीं पाती। अगले दिन वो अपने पति के साथ थाने में एफआईआर लिखाने जाती है। थानेदार एफआईआर लिखने से मना कर देता है। वो बलात्कार का सबूत मांगता है और मेडिकल सर्टिफिकेट लाने के लिये कहता है। वो सर्टिुिकेट लेने के लिये अस्पताल जाती है लेकिन वहां कोई महिला डाक्टर नहीं होती। दूसरे अस्पताल में जाती है तो वहां कोर्ट के आर्डर के बिना सर्टिफिकेट देने से मना कर दिया जाता है। सांवरी शोभा को घटना की जानकारी देती है। शोभा न्याय की लड़ाई लड़ने में उसका साथ देती है। और इस तरह उसका मुद्दा गांव से उठकर देषव्यापी हो जाता है। लेकिन अन्त में जज उसके खिलाफ फैसला देता है।

और फिल्म हमारी न्याय व्यवस्था, जाति प्रथा, राजनैतिक पूर्वाग्रहों के साथ एक और बड़े मुद्दे पर बात करती है। वो ये कि शोभा जैसी महिलाएं जो सांवरी जैसी महिलाओं के साथ सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ती हैं उन्हें खुद कितना मजबूत होना पड़ता है। खुद ऐसे सामाजिक कार्यों में उनका परिवार उन्हें कितनी मदद करता है। शोभा का पति जो कि समाजशास्त्र का एक प्रोफेसर है वो खुद उसके इस सामाजिक जीवन से परेशान है जिस वजह से वो घर की तरफ ध्यान नहीं दे पाती। फिल्म सामाजिक कार्यों में लगे ऐसे लोगों के पारिवारिक कलह पर भी ध्यान केन्द्रित करवाती है। लेकिन सवाल यही है कि एक मामला जो इतने बड़े स्तर पर उछाला गया, जिसकी देशभर में इतनी चर्चाएं हुई उसका पीड़ित पक्ष आज भी न्याय की उम्मीद लिए खड़ा है। इन्तजार में कि उसे कब न्याय मिलेगा। ये कैसा सामाजिक यथार्थ है जो देशभर के लोगों की समझ में आता है, फिल्मकारों की समझ में आता है लेकिन तथ्यों और सबूतों पर जीने वाली हमारी न्यायपालिका की समझ से ये यथार्थ परे है।

एक फिल्म के तौर पर बवंडर उन समानान्तर फिल्मों का प्रतिनिधित्व करती है जो देश के सामाजिक मुददों से उपजती हैं। मातृभूमि, पार्टी, अर्धसत्य, आक्रोश, मंडी, चांदनी, बार फिर मिलेंगे जैसी फिल्मों की धारा से जुड़ती इस फिल्म का कथानक भी सत्य पर आधारित है। नंदिता दास(सांवरी) रघुवीर यादव(सोहन),दीप्ति नवल(शोभा माथुर), गोविन्द नामदेव आदि कलाकारों के अच्छे अभिनय के बूते फिल्म अपना काम कर जाती है। राजस्थान के एक गांव को अपने पूरे ग्रामीणपन में फिल्म अच्छे से उतारती है। एक लेखरक के तौर पर राहुल खन्ना के लिए सांवरी क्या है, गांव के गूर्जरों के लिए सांवरी के क्या मायने हैं, उसकी मदद करने और इस बहाने से अपना काम साधने वाले एनजीओ सांवरी को किस तरह देखते हैं और अन्ततह न्याय व्यवस्था के दंश को झेलने के बाद सांवरी पूरे देश के लिए क्या हो जाती है। सांवरी का अपने हक के लिए लड़ना इसीलिए भी अधिक साहसिक हो जाता है क्योंकि उसका परिवेश उसे एक छोटी जाति की महिला होने के नाते ऐसा करने की अनुमति नहीं देता। लेकिन उसके अन्दर एक सांवरी है जिसे अपने सांथ हुए अत्याचार ने जगा दिया है। उसके पास दो ही शर्तें हैं या तो वो अपने लिए लड़ते हुए जिन्दा रहे या चप बैठकर अपने अन्दर ही कहीं मर जाये। वह पहली शर्त चुनती है। और समाज के लिए एक उदाहरण बन जाती है। फिल्म सांवरी के इस संघर्ष को अलग अलग परतों में बखूबी दिखा पाती है। महज सांवरी ही नहीं बल्कि हर किरदार फिल्म में बखूबी उभरता है। और फलतह देखने वाले को लगता है यही तो सच में होता है। ऐसा ही तो भंवरी के मामले में हुआ होगा। सांवरी के साथ हुए अत्याचार को फिल्मी परदे पर दिखाना कितना सही था इस पर भी लोगों ने सवाल खड़े किये। लेकिन ऐसा होना कितना सही था ये हमारी न्याय व्यवस्था अभी तक निर्धारित नहीं कर पाई है। फिल्म फिल्म में हर बार जब भंवरी अपमानित होती है तो उतनी बार दर्शक की आंखें में उसके लिए सम्मान बड़ जाता है। इसीलिए फिल्म भंवरी को अपमानित न कर उसकों सम्मान देती हीं नजर आती है।

1992 का सच 2010 की शुरुआत होते होते भी सच नहीं साबित किया जा सका है ।देखें राजस्थान के रेगिस्तान से उठे इस बवंडर का आंखिरी अंजाम क्या होता है और कब तक ये बवंडर अंजाम पर पहुंचता है। जग मुंदरा की ये फिल्म इस बवंडर को दिमाग के कोनों में बार बार खड़ा करती है और एक सवाल भी कि उस महिला को कब न्याय मिलेगा।

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