जल्द ही गाँव पर फिल्म बनाउंगा : दीपक डोबरियाल

Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm

 मूलतः गाँव कनेक्शन के लिए लिए गए इस साक्षात्कार को यहां भी पढ़ा जा सकता है. 

भारतीय सिनेमा में गाँव के किरदारों के बारे में जब भी बात होती है तो दीपक डोबरियाल का नाम ज़हन में ज़रुर आता है। ओमकारा, गुलाल, तनु वेड्स मनु, मकबूल, दांये या बांये से लेकर दबंग-2 जैसी फिल्मों में अपने गंवई अंदाज़ से दर्शकों के बीच अपनी अलग पहचान बनाने वाले दीपक डोबरियाल से बात की उमेश पंतने। पेश हैं इस बातचीत के कुछ अंश- 

अपनी पैदाइश के बारे में कुछ बताईये?

मेरी पैदाईश पौढ़ी गढ़वाल के कबरा गाँव में हुई। बचपन में चार-पांच साल वहीं गुजरे। दिल्ली में पापा का जाॅब था तो उनके साथ वहीं शिफ्ट हो गये। उसके बाद मैं हर साल दो महीने के लिये गढ़वाल जाता था और जब वहां से लौटता था तो मैं पूरा गढ़वाली हो जाता था। हिन्दी भी भूल जाता था। गर्मियों की छुटिटयों का मतलब था गढ़वाल और गाँव ।  गढ़वाल को मैने कभी एक टूरिस्ट के नज़रिये से नहीं देखा। मेरे गँाव की जो मैमेारी है मुझे लगता है कि दुनिया की एक वही जगह है जो सबसे सच्ची है। वो विजुअल्स आज भी वैसे के वैसे हैं। आमतौर पर जब आप शहरों को देखते हैं तो वो बहुत जल्दी बदल जाते हैं। लेकिन पहाड़ इतनी जल्दी नहीं बदल सकता। वो इतना विशाल है। आज भी वही स्टेप फार्मिंग, वही रास्ते वहां हैं। प्रकृति इन्सानों की तरह इतनी आसानी से नहीं बदलती। और ये न बदलने की जो फितरत है उससे बहुत भरोसा मिलता है।

आप फिल्म लाईन में कैसे आये ?

सच बताऊं तो मैं भागादौड़ी और दिखावे के चक्कर में फिल्म लाईन में आया हूं। फिल्म लाईन में आना मेरे ज़हन में कभी नहीं था। मुझे मेरे हिसाब से जाॅब नहीं मिली इसीलिये मैं इस लाईन में आ गया। कई बार जब कुछ भी आपके हिसाब से नहीं हो रहा होता तो भी आपको एक खास किस्म की ऊर्जा मिलती है, और ऐसे में आपको कुछ मिले तो आप विस्फोटक तरीके से ग्रो करने लगते हो। शायद मेरे साथ यही हुआ।

तो एक्टिंग आपका सपना नहीं था?

मैं पढ़ाई में औसत था। एक्टिंग में शोशेबाजी के चक्कर में आया हूं। मैं एक्टर नहीं होता तो कहीं स्टैनोग्राफर होता, किसी सरकारी विभाग में सेक्रेरटरी हो गया होता या वन विभाग में जाॅब कर रहा होता। पर ये मेरी खुशनसीबी है कि मुझे कहीं जाॅब नहीं मिली और में एक्टिंग में आ गया।

आप थियेटर से भी काफी समय तक जुड़े रहे हैं ?

हां शुरुआत थियेटर से ही की। मैने जब थियेटर जाॅइन किया तो लगा कि यहां अपने अन्दर की बेचैनियों को व्यक्त करने की सम्भावनाएं बहुत हैं। अरविन्द गौड़ के साथ 6 साल थियेटर करने के बाद मैने एक साल पंडित एन के शर्मा के साथ एक्ट वन में थियेटर किया।

गाँव से दिल्ली, फिर दिल्ली से मुम्बई, कैसा रहा ये सफर ? संघर्ष तो रहा होगा ?

शुरुआत में तीन चार साल मुंबई में केवल रैंट देने के लिये काम किया। जो काम पसंद नही थे वो काम भी किये। पर-डे के हिसाब से एक सीन के लिये भी फिल्में की ताकि महीने का रैंट निकल सके। थियेटर की एक्टिंग यहां मेरे काम नहीं आई। सिनेमा की एक्टिंग में समझ का बहुत फर्क होता है। मैने सिनेमा की एक्टिंग को अलग तरीके से समझने की कोशिश की। धीरे धीरे मकबूल में मौका मिला। विशाल भारद्वाज जी के साथ ब्लू अम्ब्रेला की। मकबूल के बाद पंकज जी ने मुझे नोटिस किया और विशाल जी को कहा कि अगली बार मुझे कोई अच्छा रोल दें। तो ऐसे मुझे ओमकारा में रोल मिला। 1971, गुलाल, शौर्या इन सब फिल्मों में मुझे रोल मिलने शुरु हो गये।

कहते हैं कि ये इन्डस्ट्री नये लोगों को इतनी आसानी से स्वीकार नहीं करती। आपके अपने हिस्से में भी ऐसे कुछ अनुभव आये होंगे?

शुरुआत में लोग बोलते थे बहुत पतला है, बहुत स्किनी है, ये कहां फिट होगा, ऐसे रिजेक्ट कर देते थे। आज मेरा वही वेट है पर आज लोग तरसते हैं कि कैसे वो मुझे अपनी फिल्मों में लें। मतलब यही कि अब वो खुद को मेरे हिसाब से फिट करते हैं। शुरुआत में बहुत रिजेक्शन मिला। पर जैसे ही आपका काम अच्छा लगने लगता है फिर आपको चिन्ता नहीं होती।

अभिनय के लिये प्रेरणा कहां से लेते हैं आप?

मैं ज्यादातर हाॅलिवुड की फिल्मों से प्रभावित रहा हूं। मार्लिन ब्रांडो, हाविये बार्दिम, हीथ लेग, जूलिया नौश, मेरिल स्ट्रीप वगैरह से मैने बहुत कुछ सीखा है। इन लोगों की अभिनय के लिये गम्भीरता दिखती है। अभिनय कोई इतनी आसान चीज़ नहीं है जो यहां का एक्टर समझता है। वो न साहित्य पड़ता है, न फिल्में देखता है, उनमें मैं भी हूं। मुझे लगता है कि लड़कपन बहुत हो गया अब पढ़ना है।

आपके ज्यादातर रोल्स में गाँव है? क्या आप अपने लिये जानबूझकर ऐसे रोल चुनते हैं?

आपको पहले हिन्दुस्तान को समझना होगा। अकेले यूपी के किरदार देखेंगे तो दस अलग किरदार आपको मिल जाएंगे। पंजाब, दिल्ली, हर जगह के किरदार अलग तरह के होंगे। पहले किरदारों की इस विविधता को समझना ज़रुरी है। मुझे हाॅलिवुड से, इंगलैंड से फिल्मों के आॅफर आये पर लगा कि अंग्रेज़ी अभी रहने देते हैं पहले अपने देश को तो समझ लें। हमारे देहाती रोल में भी वैसी ही गम्भीरता है जैसी अन्तर्राष्ट्रीय फिल्मों में होती है। मुझे पहले अपना जोन समझना है, जहां मैं रहता हूं उस ऐरिये को समझना है, इसलिये में इसी तरह के रोल ज्यादा करता हूं।

   कई रोल्स में मैं फिट हो जाता हूं। कई रोल्स में लगता है कि जबरदस्ती फिट किया जा रहा है या मैं रिपीट हो रहा हूं तो ऐसे रोल्स को मैं मना कर देता हूं। कोशिश करता हूं कि मेरी हर अगली फिल्म में पहली फिल्म से अलग रोल हो।

क्या आपको लगता है भारतीय सिनेमा ने गाँवों को हमेशा एक आउटसाईडर के नज़रिये से देखा है ? गाँवों को हमारी फिल्मों ने गहराई से समझने की कोशिश नहीं की ? 

नहीं मैं ऐसा नहीं मानता। मेरा कोई भी किरदार चाहे वो “दांये या बांये” का रमेश माझिला हो, चाहे “तनु वेड्स मनु” का पप्पी हो, या कोई भी रोल हो वो उसी गाँंव का है, उसी जगह का है। उदाहरण के तौर पर दांये या बांये के 97 फीसदी किरदार वहीं के थे जहां ये फिल्म फिल्माई गई है। कुछ थियेटर के लोग थे, कुछ फोक शैली के नाटक करते थे, बांकी वहीं के लोग थे। पहले मैं बहुत सोच रहा था कि इस किरदार के हिसाब से मैं ऐसे रोल करुंगा, इस सिचुएशन में ऐसे रिएक्ट करुंगा, फिर इन लोगों के साथ काम किया तो लगा कि यहां तो एक्टिंग करनी ही नहीं है। मैने सोचा कि मैं जितना बेवकूफ एक पहाड़ी के तौर पर हूं मैं वही रहूंगा। अक्सर यही होता है कि गाँव से शहर जाकर वहां वापस लौटे ज्यादातर लोग गाँव के लोगों के सामने रौब जमाने लगते हैं, या कहें कि चैड़े होने लगते हैं, मैने इस फिल्म में अपना किरदार उन्हीं लोगों से पकड़ा है। उस फिल्म में एक्टिंग का एबीसीडी भी यूंज़ नहीं किया मैने।

जब हम माजिद माजिदी जैसे फिल्मकारों का सिनेमा देखते हैं तो उसमें गाँव अपने असल रुप में दिखाई देते हैं। दांये या बांये एक हद तक वैसी ही कोशिश दिखती है। पर हमारे यहां ऐसी कोशिशें ज्यादा सफल नही होती जबकि दंबंग-2 जैसी फिल्में ज्यादा सफल हो जाती हैं। ऐसा क्यूं है?

इसकी वजह है रीच यानि पहुंच। टीवी में अगर आप उत्तराखंड की फिल्म लगाएंगे तो उसे यूपी वाला मुश्किल से देखेगा। लेकिन जो बड़े स्टार है उनकी पहुंच बहुत ज्यादा है। ये रोज टीवी पे रहते हैं, इनका पीआर बहुत स्ट्राॅंग है। ये ब्रांड बन चुके हैं। इनसे कमाई बहुत है। इन्हें प्रमोशन ज्यादा मिलता है। बड़ी फिल्मे ंकरते हैं, पैसे ज्यादा हैं इनके पास। इसलिये इनकी रीच बहुत बढ़ जाती है।

पर इसका समाधान क्या है?

इसमें समाधान जैसी कोई बात ही नहीं है। आप अपना बेस्ट बनाते रहो उसे देखने वाले लोग हैं। एक उदाहरण लें तो मेरे कुछ दोस्त प्लेन से जा रहे थे तो वहां उन्हें देखने के लिये 15-20 फिल्मों के आॅप्शन मिले, उनमें दांये या बांये भी थी। क्यूंकि उन्होंने बांकी फिल्में पहले ही टीवी पे देखी थी तो उन्हें दांये या बांये अलग लगी और उन्होंने उसे देखना पसंद किया। अक्सर लोग फिल्म की हाइप की वजह से फिल्म देखने जाते हैं और फिल्म देखने के बाद उसे गाली देते हैं लेकिन जब कोई अपने लिये फिल्में देखने जाता है तो उसे इसी तरह की फिल्में पसंद आती हैं। चाहे वो खोसला का घोसला हो, चाहे ओये लकी लकी ओये हो, उनसे लोग ज्यादा रिलेट करते हैं। वो जिन्दगी भर के लिये उनके दिमाग में छपी रह जाती है।

ऐसी फिल्मों को ज्यादा प्रचार मिले उसके लिये क्या किया जा सकता है?

मेरे खयाल से ये काम प्रोड्यूसर का होना चाहिये। लेकिन अब खुद मैं भी एक कलाकार के रुप में ये ध्यान रखूंगा कि ऐसी फिल्मों को अच्छे से रिलीज़ किया जाये। उनका अच्छा प्रचार हो। मैं आने वाले समय में ऐसी छोटी फिल्में कर रहा हूं, जैसे चोर चोर सूपर चोर, किटु घोष द्वारा निर्देशित सूपर से ऊपर, अनिरुद्ध चैटाला की डेमोक्रेसी प्राईवेट लिमिटेड जैसी कुछ फिल्में मैं कर रहा हूं। तनु वेड्स मनु पार्ट टू जैसी बड़ी फिल्मों पर भी काम चल रहा है।

आपको लगता है कि भारत में गाँव का सिनेमा बन रहा है ?

हां सिनेमा बन रहा है। कर्नाटका, महाराष्ट्रा, वगैरह की छोटी फिल्में बनाई जा रही हैं। मराठी सिनेमा में तिज्ञा, वुडु जैसी छोटी बजट की ग्रामीण फिल्में खूब बन रही हैं। मराठी सिनेमा की मुझे सबसे अच्छी बात ये लगती है कि वो दुनिया का बेस्ट लिटरेचर सबसे जल्दी ट्रांसलेट करते हैं। ऐसा ही और प्रदेशों में भी होना चाहिये। पहले एक मेंटेलिटी थी कि कैमरे गाँवों में नहीं पहुंच सकते लेकिन अब तो डीएसएलआर वगैरह आ गया है। अब ऐसा नहीं है। अब अच्छी कहानी हो तो फिल्में बनाई जा सकती हैं, बन भी रही हैं।

गाँव या छोटी जगह से कई युवा बड़े बड़े सपने लेकर एक्टर बनने मुंबई आते हैं। ऐसे लोगों को क्या करना चाहिये और किन चीजों से बचना चाहिये ?

देखिये मुम्बई में संघर्ष तो आपको करना होगा। कई लोग जल्दी डिसअपोइंट हो जाते हैं। लेकिन आपको अपनी एक्टिंग के लिये दो घंटे का टाईम देना ही पड़ेगा। ये होगा कि स्ट्रगल चलेगा, क्राइसिस होगी, लेकिन उस दौर में भी आपको खुद को समय देना ही होगा। मैं खुद ऐसे समय में कुछ पढ़ता रहता था। फिल्में देखता था। टीवी आॅन करके फिल्मों की सीडी चलाता था और उन्हें देखता नहीं था बस सुनता था। जो सुन रहा होता था उसे विजुअलाइज़ भी करता था। अपने लिये मैंने एक्सरसाइज़ बनाई थी। और लगातार मैं वो एक्सरसाइज़ करता था।

आपने कहा कि एक्टिंग के लिये आप अपनी एक्सरसाइज़ ईज़ाद करते थे इसके बारे में कुछ और बताइये?

आपको हर तरफ से अलर्ट रहना होता है। अलर्टनेस और ईज़ इन दोंनों का मिस्रण होना बड़ा ज़रुरी है। एक्टर को इन दोनों के बीच में रहना होता है। नये लागों से मैं यही कहना चाहता हूं कि वो अपनी लाइफ के जो एम्फेसिस हैं उन्हें शान्त करंे। मसलन कैमरे का एम्फेसिस, कि कैमरा सामने होगा तो मैं ऐसा लुक दूंगा। आप अगर इन्हें शान्त कर पाएंगे तो दो कदम आगे जा पाएंगे। अपनी फिलाॅसफी तलाशनी ज़रुरी है। आपको औब्जर्वेशन से ज्यादा पार्टिसिपेट करना होगा। लोग कहते हैं पन्द्रह साल हमने भी क्रिकेट खेला होता तो हम भी सचिन बन जाते पर ऐसा होता नहीं है। आपको करके देखना होता है। ये मेन्टालिटी बदलनी बड़ी जरुरी है। इरफान भाई जैसे लोग हैं जो चालीस साल में अपना करियर शुरु कर रहे हैं आज वो टाॅप के एक्टर हैं। अन्ना हज़ारे अपने गाँव के लिये कब से काम कर रहे थे। उन्हें नहीं पता था कि वो किस एज में नेश्नल हीरो बन जाएंगे।  ये जो बौखलाहट है आज के यूथ में वही सबसे नकारात्मक बात है। बौखलाहट से कुछ नहीं होता अपनी ऊर्जा को सोच में बदलना सबसे ज़रुरी है।

जो हमारा क्षेत्रीय सिनेमा है उसमें बालीवुड को फिट करने की कोशिश की जाती है उन इलाकों का यथार्थ फिल्मों में नहीं आ पाता। क्या आपको ऐसा लगता है? 

मैने एक चाइनीज़ फिल्म देखी “पोस्टमैन इन द माउन्टेन” वो फिल्म उत्तराखंड के भूगोल पे बिल्कुल फिट बैठती है। पर कई बार आप इतने इन्फ्लुएन्स हो जाते हो कि वही उठाकर फिट कर देना चाहते हैं। उनके लिये भी मैं कहना चाहूंगा कि रुको, उसमें अपनी रचनात्मकता लेके आओ, अपने आस पास की चीजों को प्रेरणा बनाओ, तभी यथार्थ फिल्मों में आ पायेगा।

तो अपने गाँव या अपने इलाके के लिये कभी कोई सपना देखा है आपने?

हां, मेरा सपना चार जगह कलाकेन्द्र खोलने का है। नैनीताल, उत्तरकाशी, देहरादून वगैरह में। इन आर्ट सेन्टर्स में मैं देशभर के थियेटर ग्रुप को बुलाउंगा ताकि उत्तराखंड के लोगों को भी देश दुनिया के बारे में पता चले और अलग अलग संस्किृतियों का आदान प्रदान हो। अभी ये आईडिया मैंने हवा में फेंके हैं। उम्मीद है जल्दी पूरे कर पाउंगा।

तो आप क्या कोई गाँव से जुड़ी फिल्म बनाने की योजना बना रहे हैं?

हां मेरे पास कुछ कहानियां हैं। और कुछ एक दो साल में मैं ऐसी फिल्म बनाउंगा जो 10 परसेंट मुम्बई में और शेष उत्तराखंड पर आधारित होगी।

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