लगत जोबनवा मा चोट को खोजती एक फिल्म

Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm

लगत जोबनुवा में चोट, फूल गेंदवा न मार। ये शब्द फिर गाये नहीं गये। ठुमरी के ये बोल कहीं खो गये होते।शब्द ही थे। खो जाते। अगर सबा उन्हें ढ़ूढ़ने की कोशिश नहीं करती। लेकिन सबा दीवान को न जाने क्या सूझी कि वो इन शब्दों को ढ़ूढ़ते ढूंढ़ते एक सिनेमाई सफर तय कर आई। उनकी डोक्यूमेंटी फिल्म द अदर सौंग दरअसल लगत जोबनुआ में चोट के लगत करेजवा में चोट बन जाने की यात्रा है। आंखिर क्यों जोबनुआ करेजवा हो गया। शब्दों को इस तरह बदल देने के पीछे आंखिर क्या वजह रही होगी। इन्हीं प्रश्नों को तलाशती सबा की ये फिल्म लखनउ, वाराणसी और बिहार के मुजफफरपुर तक हमें ले जाती है और इस पूरी यात्रा में देष की तवायफों की एक संस्कृति के दर्शन फिल्म कराती है। शास्त्रीय संगीत को पालने वाली इस संस्कृति की शुरुआत संगीत को पूरी तरह जीने वाले लोगों ने की। ये वो लोग थे जो संगीत को राजे रजवाड़ों और रसूख वाले लोगों की सेवा में पेश कर संगीत को बचा रहे थे उसे पाल रहे थे। हांलाकि रोजी रोटी कमाना इस पेशे में आने की मूल वजह जरुर थी लेकिन इन लोगों को अपने पेशे से प्यार था। समाज में तवायफों को जिस भी नजरिये से देखा जाता रहा हो पर ये लोग अपने पेशे को अपने आत्मसम्मान और अपनी मरजी दोनों को बिना दाव पे लगाये जारी रखे हुए थे।

1935 में वाराणसी की रसूलन बाई नाम की एक तवायफ ने लगत जोबनुवा में चोट आंखिरी बार गाया और उसे ग्रामोफोन पर रिकौर्ड कर लिया। सबा की फिल्म तीन साल की उनकी रिसर्च का नतीजा है। उनकी फिल्म तवायफों को एक कलाकार के रुप में देखे जाने का आग्रह करती मालूम होती है। उनका यह आग्रह सही भी है। क्योंकि तवायफों की संस्कृति दरअसल एक कला से उपतजी है लेकिन धीरे धीरे समाज उन्हें दूसरे नजरिये से देखने लगता है। वो उनके भीतर के कलाकार को नहीं समझ पाता। तवायफ और सेक्स वर्कर दोनों एक ही नजर से देखे जाने लगते हैं और ये बात उन तवायफों को चोट पहुंचाती है। वो अपने लोगगीतों में एक कला जन्य सुख परोसना चाहती हैं जिसका सीधा सम्बन्ध मन से है। लेकिन सुनने और देखने वाला समझने लगता है कि ये एक दैहिक आग्रह है। और वो इसे सेक्स से जोड़कर देखने लगता है। ऐसे में एक कलाकार के अन्दर की आत्मा मरने लगती है। लगत जोबनुवा में चोट के भीतर की आत्मा मरने लगती है। उसका अर्थ दैहिक हो जाता है। जोबनुआ दिल न रहकर दिल के उपर की मांसल देह भर रह जाता है। और उसे बदलना पड़ता है। लगत जोबनवा में चोट कहीं खो जाता है। साथ में रसूलन बाई कहीं लुप्त हो जाती हैं। और फलतह उनका संगीत कहीं खो जाता है। लोग तवायफों की खोज करते हैं। उनकी देह को तलाशते हैं। पर उनके संगीत को कोई नहीं तलाशता। न उस वजह को जिस वजह से ये संगीत धीरे धीरे मर जाता है।

सबा सत्तर सालों बाद अपनी इस फिल्म के जरिये कई कड़ियां खोजते खोजते 1935 में घटी उस छोटी सी घटना की तह में जाती हैं। सत्तर साल का ये एतिहासिक सफर वो रियल टाईम में तीन सालों में तय करती हैं और 120 मिनट के रील टाईम में उसे हमें सोंप देती हैं। इस यात्रा में वो बिहार के मुजफफर पुर की दयाकुमारी और रानी बेगम से मिलती हैं। बनारस की सायरा बेगम उनकी यात्रा का हिस्सा बनती हैं। ये वो तवायफें हैं जिन्होंने अपने पेशे का इसलिये छोड़ दिया कि लोगों ने उसके मर्म को समझना बंद कर दिया। उसमें एक वैचारिक गंद घोल दी और तवायफें कुछ और हो गई। जो हो जाना सायरा, दया या रानी को गवारा नहीं था।

हिन्दी फिल्मों ने भी तवायफों के इस दर्द को समझने की कोशिश एक दौर में की थी। पाकीजा या उमरावजान जैसी फिल्मों ने तवायफोें की सामाजिक मान्यता पर बहस छेड़ी। लेकिन सबा की ये कोशिश कई मायनों में ज्यादा जरुरी हो जाती है। सबा जब इस फिल्म पर बात करती हैं तो उनकी आंखों में वो तीन साल की मेहनत नजर आती है। उनकी बातों से लगता है कि एक फिल्मकार जब अपनी फिल्म के विषय को जीने लगता है तो वो एक इतिहासकार या एक दार्शनिक हो जाता है। सबा ने नाच, बर्फ जैसी कुछ अन्य डौक्यूमेंटी फिल्में भी बनाई हैं। हांलाकि अभी उन्हें देखने का मौका नहीं मिला है। सबा की फिल्म और उनके अनुभवों की ये खेप आप तक पहुंचा रहा हूं। पढ़ें और चाहें तो अपनी टिप्पणियां दें।

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