Last Updated on: 16th July 2025, 08:55 am
;लगत जोबनुवा में चोट, फूल गेंदवा न मार’। ये शब्द फिर गाये नहीं गये। ठुमरी के ये बोल कहीं खो गये होते। शब्द ही थे। खो जाते। अगर सबा उन्हें ढ़ूढ़ने की कोशिश नहीं करती। लेकिन सबा दीवान को न जाने क्या सूझी कि वो इन शब्दों को ढ़ूढ़ते ढूंढ़ते एक सिनेमाई सफर तय कर आई। उनकी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ‘द अदर सौंग’ (The other song) दरअसल लगत जोबनुआ में चोट के लगत करेजवा में चोट बन जाने की यात्रा है।
जोबनुआ से करेजवा की यात्रा की कहानी बताती है फ़िल्म The other song
आख़िर क्यों ‘जोबनुआ’, ‘करेजवा’ हो गया। शब्दों को इस तरह बदल देने के पीछे क्या वजह रही होगी। इन्हीं प्रश्नों को तलाशती सबा की ये फ़िल्म लखनऊ, वाराणसी और बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर तक हमें ले जाती है और इस पूरी यात्रा में देश की तवायफों की एक संस्कृति के दर्शन फ़िल्म कराती है।
शास्त्रीय संगीत को पालने वाली इस संस्कृति की शुरुआत संगीत को पूरी तरह जीने वाले लोगों ने की। ये वो लोग थे जो संगीत को राजे रजवाड़ों और रसूख वाले लोगों की सेवा में पेश कर संगीत को बचा रहे थे उसे पाल रहे थे। हालाँकि रोजी-रोटी कमाना इस पेशे में आने की मूल वजह ज़रूर थी लेकिन इन लोगों को अपने पेशे से प्यार था। समाज में तवायफों को जिस भी नजरिये से देखा जाता रहा हो पर ये लोग अपने पेशे को अपने आत्मसम्मान और अपनी मर्ज़ी दोनों को बिना दाँव पर लगाये जारी रखे हुए थे।
1935 में वाराणसी की रसूलन बाई नाम की एक तवायफ ने ‘लगत जोबनुवा में चोट’ आख़िरी बार गाया और उसे ग्रामोफ़ोन पर रिकॉर्ड कर लिया। सबा की फ़िल्म तीन साल की उनकी रिसर्च का नतीजा है। उनकी फ़िल्म तवायफों को एक कलाकार के रुप में देखे जाने का आग्रह करती मालूम होती है। उनका यह आग्रह सही भी है। क्योंकि तवायफों की संस्कृति दरअसल एक कला से उपतजी है लेकिन धीरे धीरे समाज उन्हें दूसरे नजरिये से देखने लगता है। वो उनके भीतर के कलाकार को नहीं समझ पाता।
तवायफ़ों की देह सब तलाशते हैं उनका संगीत कोई नहीं तलाशता
तवायफ और सेक्स वर्कर दोनों एक ही नजर से देखे जाने लगते हैं और ये बात उन तवायफों को चोट पहुंचाती है। वो अपने लोकगीतों में एक कला जन्य सुख परोसना चाहती हैं जिसका सीधा संबंध मन से है। लेकिन सुनने और देखने वाला समझने लगता है कि ये एक दैहिक आग्रह है और वो इसे सेक्स से जोड़कर देखने लगता है। ऐसे में एक कलाकार के अन्दर की आत्मा मरने लगती है।
लगत जोबनुवा में चोट के भीतर की आत्मा मरने लगती है। उसका अर्थ दैहिक हो जाता है। जोबनुआ दिल न रहकर दिल के उपर की मांसल देह भर रह जाता है और उसे बदलना पड़ता है। लगत जोबनवा में चोट कहीं खो जाता है। साथ में रसूलन बाई कहीं लुप्त हो जाती हैं और उनका संगीत कहीं खो जाता है। लोग तवायफों की खोज करते हैं। उनकी देह को तलाशते हैं। पर उनके संगीत को कोई नहीं तलाशता। न उस वजह को जिस वजह से ये संगीत धीरे-धीरे मर जाता है।
तीन सालों में बनी फ़िल्म The other song
सबा सत्तर सालों बाद अपनी इस फ़िल्म के जरिये कई कड़ियां खोजते खोजते 1935 में घटी उस छोटी सी घटना की तह में जाती हैं। सत्तर साल का ये ऐतिहासिक सफर वो रियल टाईम में तीन सालों में तय करती हैं और 120 मिनट के रील टाईम में उसे हमें सौंप देती हैं।
इस यात्रा में वो बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर की दयाकुमारी और रानी बेगम से मिलती हैं। बनारस की सायरा बेगम उनकी यात्रा का हिस्सा बनती हैं। ये वो तवायफें हैं जिन्होंने अपने पेशे का इसलिये छोड़ दिया कि लोगों ने उसके मर्म को समझना बंद कर दिया। उसमें एक वैचारिक गंद घोल दी और तवायफें कुछ और हो गई। जो हो जाना सायरा, दया या रानी को गवारा नहीं था।
हिन्दी फ़िल्मों ने भी तवायफों के इस दर्द को समझने की कोशिश एक दौर में की थी। पाकीजा या उमरावजान जैसी फ़िल्मों ने तवायफोें की सामाजिक मान्यता पर बहस छेड़ी। लेकिन सबा की ये कोशिश कई मायनों में ज़्यादा ज़रूरी हो जाती है। सबा जब इस फ़िल्म पर बात करती हैं तो उनकी आँखों में वो तीन साल की मेहनत नजर आती है।
उनकी बातों से लगता है कि एक फ़िल्मकार जब अपनी फ़िल्म के विषय को जीने लगता है तो वो एक इतिहासकार या एक दार्शनिक हो जाता है। सबा ने नाच, बर्फ जैसी कुछ अन्य डौक्यूमेंटी फ़िल्में भी बनाई हैं। हांलाकि अभी उन्हें देखने का मौका नहीं मिला है। सबा की फ़िल्म और उनके अनुभवों की ये खेप आप तक पहुंचा रहा हूं। पढ़ें और चाहें तो अपनी टिप्पणियां दें।
bhut din baad umesh tumhare blog par aana hua. aur kabhi niraash nhi gya,
achi jaankari rhi
http://www.likhoapanavichar.blogspot.com
bahut badhiya guru..is film ke bare me suna the magara aaj apke blog par dekh bhi liya..
bahut bahut dhanyavad
kundan.star@gmail.com