Last Updated on: 5th July 2025, 01:17 pm
Into the wild movie एक अनोखी यात्रा की कहानी है।
एक दिन वो सब कुछ छोड़ कर चला जाता है। अपनी ग्रेजुएशन की डिग्री जहाँ उसने टॉप किया, अपने लाखों रुपये जो उसने अब तक भविष्य के लिए बचाये थे, अपने परिवार के लोग, सबकुछ छोड़कर वो चला जाता है कहीं दूर अलास्का के जंगलों की तरफ। अपने मां बाप और बहन को छोड़कर। बिना कुछ बताये। क्यों? इसके लिये उसके पास कई कारण हैं। वो अपने मां बाप को बचपन से देख रहा है छोटी छोटी बातों पर लड़ते हुए। वो देखता आया है उनकी बहसों के कारण कितने भौतिक हैं। कितने मटीरियलिस्टिक।
उसके ग्रेजुएशन डे के दिन उसके पापा उसे सबसे बेहतर तोहफा क्या दे सकते हैं? एक चमचमाती कार। पर वो प्यार नहीं जो उसने बरसों से चाहा है कि उसे मिले। रिश्तों में किस तरह घुल सा जाता है पैसा कमाने का जुनून और सब कुछ बरबाद कर देता है। रिश्तों के मूल तत्व कहीं गायब से हो जाते हैं और बच जाती है खानापूर्ति।
आज़ादी पाने के लिए रिश्तों के बंधन से मुक्ति
जिन्दगी के मायने क्या इन्हीं बंधनों में जकड़े रहने से जुड़े हैं? वो चीजें जिनका अस्तित्व अपने उस रुप में है ही नहीं जिसमें उनके असल मायने तलाशे जा सके। फिर क्यों एक ऐसी चीज से जुड़े रहना जिनके लिये दिल से कुछ महसूस ही नहीं होता? क्यों उस जकड़न को ज़बरदस्ती सहे चले जाना? जैसे उसके मां-बाप सहते रहे हैं एक दूसरे के साथ रहकर।
क्या रिश्ते ऐसी ही ज़बरदस्ती भर हैं जो इसलिये हैं क्योंकि वो हैं? बस इसलिये। उसके पास ऐसे सवालों की एक लम्बी कड़ी है। वो इन सवालों की कड़ी से जूझता रहा है और आज फैसला करता है कि बस अब और नहीं। वो बिना किसी को कुछ बताये निकल पड़ता है। एक सफर पर। जिसका कोई पूर्वनिर्धारित लक्ष्य नहीं है। अगर है तो वो है आज़ादी। हर बंधन से आज़ादी। हर रिश्ते से आज़ादी। हर भौतिक जरुरत से आज़ादी।
आज़ादी पाने की इस मुहिम की शुरुआत वो गुलामी की सबसे बड़ी वजह को नेस्तनाबूत करने के साथ करता है। वो अपनी पूरी जमापूंजी को दान कर देता है। और जो बच जाता है उसे आग में जला देता है। पैसे जलते है ऐसे जैसे रस्सियां टूट रही हों, जकड़न खुल रही हो। और फिर वो समुद्र की रोमांचक लहरों, रेगिस्तान के जलाते थपेड़ों , और पहाड़ों की उंचाईयों से होते हुए पहुंचता है अलास्का के बीहड़ जंगलों में।
अलास्का के जंगलों के सफ़र में मिलते हैं कई विचित्र लोग (A journey into the wild)
इस दौरान उसे कई लोग मिलते हैं। कई विचित्र लोग। एक जोड़ा जो समुद्र के किनारे आजाद जिन्दगी जी रहा है। मस्ती भरी। कुछ दिन वो उनके साथ रहता है। और फिर एक दिन उन्हें छोड़ के चला जाता है। उन्हें बुरा लगता है। बहुत बुरा। सफर जारी रहता है। इस बीच उसकी मुलाकात एक खूबसूरत युवती से होती है। वो उसे पसंद करने लगती है। पर कुछ दिनों बाद वो चला जाता है किसी दूसरे अनिश्चित मुकाम की ओर। कहां ये जाने बिना।
फिर उसकी मुलाकात एक बूढ़े आदमी से होती है। ये आदमी अकेला है और कुछ दिनों में ही बुढ़े को इसके साथ लगाव हो जाता है। गहरा लगाव। जैसे इस बूढ़ी उम्र में कोई सहारा मिल गया हो। पर एक दिन वो उसे भी छोड़कर चला जाता है। एक बार फिर रिश्ते के इस बंधन को तोड़कर।
बीहड़ जंगलों के बीच अब बस वो है और उसकी एक डायरी। जिसमें वो अपने जीवन के अनुभवों को लिख रहा है। कुछ किताबें। जो उसके साथ हैं किसी दोस्त सी। खामोश पर अपनी खामोशी में बोलती सी। इन जंगलों में भूख एक बड़ी जरुरत बनती है। तब जब खाने को कुछ ना मिले। किसी मरे जानवर का गोस्त। और खाने की मजबूरी। ऐसे ही एक दिन वो भूख मिटाने के लिये कुछ पत्तियां खाता है। उसे कुछ होने लगता है। वो अकेला है। उसे नहीं पता उसे क्या हो रहा है।
अपनी एक किताब खोलता है और देखता है कि जो उसने खा लिया वो एक जहर है। यानी एक निश्चित मौत। वो तड़प रहा है। कोई नहीं है जो उसे बचायेगा। उसकी कराहें इन जंगलों में कोई नही सुन सकता। उसने ये जिन्दगी खुद चुनी है। पर मौत हमें इतनी आज़ादी नहीं देती कि हम उसे चुन सकें। वह मरना नहीं चाहता। पर उसका मरना तय है। अब अकेलापन एक आज़ादी नहीं है, एक जकड़ है जो उसे कसे जा रही। न चाहते हुए।
एक ज़िंदगी के बारे में बताते दो नरेशन
ये एक फिल्म की कहानी है और पूरी फिल्म में हम एक आदमी को जीते हैं। उसके दृश्टिकोण से दुनिया को देखते हैं। एक फलक देखते हैं कि सच यही आज़ादी है। पर फिल्म हमें इस सच्चाई का एक दूसरा पक्ष भी दिखाती है।
फिल्म में दो समानान्तर नरेशन हैं। एक खुद क्रिस्टोफर मैकेन्डलस (Emile Hirsch) का, यानी वो जिसकी बात हम अब तक करते आये हैं। और दूसरा उसकी बहन जेन (Cathrine Keener) का। जो उसे बहुत प्यार करती है। उसकी बहन बताती है कि कैसे उसके जाने के बाद उनका परिवार टूट सा गया। और इस टूटन का एक असर हुआ कि उसके मां बाप के रिश्तों के फासले घट गये। बेटे के इस तरह चले जाने का दुख उन्हें नजदीक ले आया।
शीन पैन (Sean Penn) निर्देशित ये फिल्म दरअसल जीवन की एक दार्शनिक अभिव्यिक्ति है। जो आंखिर में यही कहती सी मालूम होती है कि रिश्तों से भले हम कितना ही आजाद होना चाहें रिश्ते हमसे अलहदा नहीं होते। क्योंकि हमारी जिन्दगी केवल हमारी व्यक्तिगत जिन्दगी नहीं है कई जीवन हैं जो इससे जुडे हैं। जिसका इनसे भरा पूरा लगाव है। हम तब तक खुश नही हो सकते जब तक इसे बांटने के लिये कोई हमारे साथ ना हो। ऐसी हर खुशी अधूरी है जिसका अन्त अकेलेपन के साथ होता है।
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हम सही में कितना भी चाहें कई रिश्ते ऐसे होते हैं जो हमसे जुड़े होते हैं और हमें अपने में जकड़े होते हैं। इंसान समाजिक प्राणी है। बिना रिश्तों के रहना उसके लिए मुश्किल होता है। उम्र के एक खास पड़ाव में लगता है कि सब कुछ छोड़छाड़ के कहीं भाग जाएं पर रिश्ते हमें नहीं छोड़ते.जिम्मेदारी हमें नहीं छोड़ती क्या करें। अब इस कशमकश में कोई कैसे जीता है ये उस पर निर्भर करता है।
behtrin post dil ko chu gai……..ab ise dikhna hi padega…..