एक ईमानदारी से बोले गये झूठ की ‘कहानी’

Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm

कहानी के ट्रेलर देखकर लग रहा था कि कोई रोने धोने वाली फिल्म होगी… जिसमें शायद कलकत्ते को लेकर नौस्टेल्जिया जैसा कुछ होगा… शायद एक पीडि़त प्रेग्नेंट औरत होगी जो अपने अधिकारों के लिये लड़ रही होगी… शायद नो वन किल्ड जैसिका जैसा ही कुछ… पर फिल्म देखने के बाद अच्छा लगा कि कुछ नया देखने को मिला… प्रिडिक्टिबिलिटी से परे… बौलिवुड के मौजूदा परिदृश्य में जिस तरह फिल्मों से बासीपन की बू आ रही थी, उसके बीच एक ताजी हवा सी लगी ये कहानीं
कहानी को देखते हुए हर वक्त आगे क्या होगा वाली भावनाएं ज़ेहन में बनी रही। ये कहानी आपको चुपचाप बैठे नहीं रहने देती…. बीच बीच में ऐसे झटके देती है, जो फिल्म देखने के आपके अनुभव को बार बार रिफ्रेश करते हैं..
एक लैबोरेटरी में एक चूहे को लिक्विड नर्व गैस संुघाकर मारा जा रहा है , और फिर कुछ देर में कलकत्ते की मैट्रो में उसी लिक्विड गैस के जरिये सैकड़ों लोगों की मौत हो जाती है… मैट्रो के कोच में पड़ी बीसियों लोगों की डैड बाडीज़ पहला झटका देती हैं…..यहीं से फिल्म प्रोमिसिंग नज़र आने लगती है…
ल्ेाकिन इसके बाद कुछ तकनीकी रुप से खराब शौट्स और बुरी एडिटिंग का नज़ारा देखने को मिलता है… थोड़ी निराशा होने लगती है… पर इसके बावजूद कसी हुई स्क्रिप्ट बांधे रखती है…
लंदन से एक प्रेग्नेंट औरत बिद्दा बाक्ची माफ कीजिये विद्या बाक्ची कलकत्ते पहुंचती हैं अपने खोए हुए पति को ढूंढ़ते हुए… अपनी इस खोज में वो एक पुलिस आफिसर (परमब्रत चटर्जी) को शामिल करती है, एक कोन्टेªक्ट किलर (सास्वत चटर्जी) उसकी इस खोज का दुश्मन हो जाता है…
दूसरा झटका तब लगता है जब इन्टरमिशन से ठीक पहले ये कौन्ट्रेक्ट किलर बौब (साश्वत चटर्जी) मैट्रो ट्रेक में चलती टेªन के आगे विद्या को धक्का दे देता है… टीवी न्यूज चैनलों की तरह ब्रेक से ठीक पहले लोगों को धोखा देकर फिल्म इन्टरमिशन में सीट पर बैठे या पौपकौर्न खरीदने गये या फिर हल्के होने गये दर्शकों को सेकन्ड हाफ का बेसब्री से इन्तजार करवाती है…
ब्रेक के तुरन्त बाद बिद्दा बाक्ची को सुरक्षित देखकर थोड़ी राहत मिलती है, हांलाकि ये मामला पूरी तरह प्रिडिक्टेबल ही है, दर्शक सरप्राईज तो नहीं होता पर कुछ देर के लिये एक हल्का झटका लगता है… क्योंकि फिल्म अब तक आपको सस्पेंस वाले फील में तर कर चुकी होती है… आपकी उम्मीदें बढ़ा चुकी होती है…
फिर इन्टरमिशन के कुछ देर बाद तक वो औरत दर्शकों की आंखों में धूल झोंकती है…. बहुत बाद में आपको पता चलता है कि आप जैसा समझ रहे थे वैसा तो कुछ है ही नहीं, असल कहानी तो कुछ और ही है…
फिल्म झूठ पर झूठ बोलकर दर्शकों को मोह लेती है, ये कहानी एक ईमानदारी से बोले गये झूट की कहानी नज़र आने लगती है, जहां पहले पुलिस एक शातिर अपराधी को पकड़ने के लिये विद्दा बाक्ची से झूट बोलकर उसे मोहरा बनाती है, क्योंकि पुलिस को लगता है कि एक प्रेगनेंट औरत पर कोई शक नहीं कर सकता और फिर पता चलता है कि दरअसल बिद्दा बाक्ची नाम की ये औरत खुद पुलिस को मोहरा बना चुकी होती है क्योंकि उसका अपना लौजिक भी यही है कि एक प्रेगनेंट औरत पे कोई शक नहीं कर सकता….
विद्या बालन ने इस फिल्म के बाद ये साबित कर दिया है कि बालिवुड में उनकी जगह इरफान खान के समानान्तर है, ऐसी जगह जहां पर दूर दूर तक दूसरा कोई खड़ा नहीं दिखाई देता… वो डर्टी होकर भी बेस्ट हैं और उस डर्ट के बिना भी… उनकी अदाकारी में वो बात है, जिसके सामने पर्फेक्ट फिगर, ग्लैमर और लुक्स जैसे सारे कौन्सेप्ट पानी भरते नज़र आते हैं। बौलिवुड के दर्शकों को इरफान और विद्या बालन दोनों का शुक्रगुजार होना चाहिये कि उन्होंने स्टारडम के दिखावे को चेतावनी देते हुए एक्टिंग जैसी चीज़ पर उनका भरोसा फिर से कायम होने का मौका दिया है।
कहानी की पूरी कहानी में कुछ भी नया नहीं है, बल्कि वही सब है जो आप शायद जासूसी उपन्यासों में पहले भी कभी पढ़ चुके हों, पर उस कहानी के कहनेपन में नई बात ज़रुर है… मसलन फिल्म में कलकत्ता स्टीरियोटिपिकल तरीके से किसी महानगर की तरह नहीं आता, बल्कि संकरी गलियां, पुराने मकान, चाय के नुक्कड़, ये सब देखके शहर को किसी गांव की तरह जीने सा मज़ा आता है…. हौट रनिंग वाटर देने वाला मुस्कुराता छोटू, गुड आफट्रनून के जवाब में जैसा आप बोलें कहने वाला रिसेप्सनिस्ट और इन छोटे छोटे लमहों और किरदारों के जरिये अपनी मासूमियत में गुदगुदाते रहने वाली बंगालियत, फिल्म से दर्शकों को सीधा जोड़ देती है।
कहानी शायद इसलिये थोड़ा मासी सी लगती है क्योंकि उसके सस्पेंस में ज्यादा ईंटेलीजेंस नहीं है। उसे समझने के लिये कोई ज्यादा दिमाग लगाने की ज़रुरत नहीं है। फिल्म कहती है कि ऐसा हुआ है और एक बार में किसी भी दर्शक को ये समझ आ जाता है कि ओह अच्छा ऐसा हुआ है। बालिवुड की फिल्मों में सस्पेंस और थ्रिलर वाले ज्यादा प्रयोग देखने में नहीं आते। ये जौनर एक हद तक अनछुआ सा लगता है। डबल इन्डेम्निटी, ब्रेथलेस या फिर रेयर विन्डो जैसा कुछ जो विदेशी सिनेमा में बहुत पहले बन चुका है बौलिवुड आज भी उसके लिये अच्छी तरह तैय्यार नही है, कहानी को उस जौनर में सम्भल सम्भल कर कदम रखने की एक अच्छी कोशिश की तरह भी देखा जा सकता है।
पान सिंह तोमर और पीपली लाईव में अपनी अदाकारी की झलकियां दिखाने के बाद एक ईंटेलीजेंस आफिसर के रुप में नवाजुददीन सिद्दीकी इस फिल्म में बहुत ज्यादा प्रभावित करते हैं, बल्कि एक अलग पायदान पर खड़े नज़र आते हैं…
परमब्रत और विद्या के मासूम से एकतरफा प्रेमप्रसंग के बीच कई ऐसे दृश्य आते हैं जब लगता है कि निर्देशक साहब ने दर्शकों को बड़े हल्के में ले लिया है… विद्या की हेयर क्लिप से हरिसन टाईप मजबूत तालों का बार बार बड़ी आसानी से खुल जाना, अचानक से विद्या का कम्प्यूटर हैकिंग में पारंगत हो जाना, वगैरह वगैरह…. फिल्म कुछ जगहों पर स्पूनफीड भी करती है पर हास्यास्पद कहीं नहीं लगती।
फिल्म के अन्त में अमिताभ बच्चन का मां दुर्गा पर दिया गया भाषणनुमा वाईसओवर गैरज़रुरी सा लगता है। पर उनका गाया गया एकला चलो रे उनकी आवाज़ पर फबता जरुर है।
सुजौय घोष की इस फिल्म को सस्पेंस और थ्रिलर जौनर में बालिवुड के लिये माईलस्टोन तो नहीं कहा जा सकता पर हां ये फिल्म फिल्मकारों को इतना अहसास तो ज़रुर दिलायेगी कि मैलोड्रामा और फौर्मुला फिल्मों से अलग इस जौनर में बनी फिल्में भी दर्शकों के द्वारा सराही जा सकती हैं ।

 

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