लव, सेक्स, धोखा और धोखा फ़िल्म

Love sex aur dhokha

Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm

लव, सेक्स और धोखा (Love sex aur dhokha movie)। इन तीनों में से कोई भी शब्द हाईपोथैटिकल और नया नहीं है। तीनों इन्सानी फितरत के हिस्से हैं। और इसी तरह हिन्दुस्तानी फिल्मों के भी। लेकिन दिबाकर बनर्जी जिस तरीके से इन तीनों को स्क्रीन पे दिखाते हैं उससे फिल्म की ग्रामर को ही एक नई धारा सी मिल जाती है।

मेरी समझ से इस तरह की फिल्म हिन्दुस्तान में पहले कभी नहीं बनी। जिसमें सब कुछ आन कैमरा चल रहा है। फिल्म कैमरे के पाईंट आफ व्यू से हमें तीन अलग अलग कहानियां दिखाती है। लेकिन जिस तरह से इन तीन बिल्कुल अलग कहानियों को लिंक किया गया है वह कमाल है।

फिल्म दर्शकों को तीनों कहानियां उसी तरह दिखाती है जेसे वो कैमरे में रिकौर्ड हो रहीे हैं। कैमरे के एंगल और मूंमेंट बिल्कुल वियर्ड से लगने लगते हैं। इससे इस बात का खतरा भी पैदा होता है कि क्या एक आम दर्शक जो बालिवुड के एक सेट पैटर्न पर फिल्में देखने का आदी हो चुका वो इस तरह के विकृत से रुप में फिल्म देखना चाहेगा?


महानगरीय सभ्यता में सर्विलेंस के बारे में

Love sex aur dhokha movie

शुरुआत में दर्शकों को कैमरे की वजह से महसूस होने वाली इस विकृति को आत्मसात करने में समय लग सकता है। लेकिन जैसे जैसे वह इस बात का आदी हो जाता है और वह कैमरे के रिदम को समझने लगता है उसे फिल्म समझ में आनी शुरु हो जाती है। ऐसा लगता है कि फिल्म किसी फिल्म की मेकिंग का रॉ मटीरियल है।

लेकिन वास्तव में फिल्म आज की महानगरीय सभ्यता में सर्विलेंस के बढ़ते जाल का पर्दाफाश करती है और जितने यथार्थवादी तरीके से करती है वह काबिलेतारीफ है। फिल्म ये नहीं दिखाती की आम जिंदगी में जो तांकझांक की जा रही है वो सही है या गलत बल्कि वह इससे जरुरी काम करते हुए यह दिखाती है कि आंखिर ये तांकझांक हो कैसे रही है।


लव, सेक्स और धोखा फ़िल्म की पहली कहानी

फिल्म की पहली कहानी एक स्टूडेंट फिल्म मेकर के प्यार की कहानी है। कैसे वो अपनी फिल्म की मुख्य किरदार से प्यार करता है, प्यार के चलते कैसे उसके परिवार के सदस्यों से उसकी मुलाकात होती है, कैसे उसका पिता फिल्म का हिस्सा बनता है, कैसे वह लड़की को भगा कर ले जाता है और अन्ततह कैसे दोनों मारे जाते है। ये सबकुछ रिकॉर्ड हो रहा है। फिल्म देखते हुए दर्शकों के कमेंट बड़े रोचक होते हैं।

देख भाई प्यार का हस्र। कई बार लगता है कि जिस माहौल में हम जी रहे हैं वहां प्यार एक बड़ी सस्ती सी चीज हो गया है। ऐसी जिसका सम्बन्ध बस देह से है। फिल्म के इस पहले हिस्से के अन्त में फिल्म में बन रही फिल्म की नाईका स्रुति और फिल्म डाईरेक्टर राहुल को काट काटकर लड़के का भाई मार देता है और मरवाने का आदेश लड़की के पिता का होता है। यानी बेटी बेटी नहीं एक ऐसी चीज है जिससे घर की इज्जर बढ़ाई जा सकती है। जिसे शोपीस बनाकर घर में तब तक रखा जा सकता है जब तक कोई रईश खरीददार ना मिल जाये ।

हम इस सिस्टम में जीने के आदी हो गये हैं जहां ये चीजें बहुत आम हो गई हैं। कई बार ऐसा लगता है कि पूंजी हमारे मूल्यों पर इतनी हावी हो गई है जहां प्यार जैसी संवेदनाओं की कोई कीमत ही नहीं रह गई है और कमोवेश लड़कियों का एक बड़ा हिस्सा भी इस बात को मानने को तैयार हो जाता है।

फैमिनिजम जैसी अवधारणाओं पर गहरा विश्वास रखने वाली लड़की भी अगर आपको यह कहते मिल जाये कि एक अमीर लड़के से शादी हो जाये तो लाईफ बन जाये। ये लाईफ बन जाने का मौजूदा कन्सेप्ट आने वाले समय में जिस तरह का समाज बनायेगा वो ऐसा होगा जैसा फिल्म दिखाती है। जहां बेटी उतनी जरुरी नहीं रह जायेगी जितनी परिवार की रैपुटेशन। फिल्म का पहला हिस्सा इस बात को गहरे तक कह जाता है।


लव, सेक्स और धोखा फ़िल्म की दूसरी कहानी

फिल्म दूसरी कहानी की ओर बढ़ते हुए डिपार्टमेंटल स्टोर्स में चोरी छिपे चलने वाले सेक्स स्कैंडल का पर्दाफाश करती है। मैट्रो सिटीज में जिस तरह से माल्स का प्रचलन बढ़ा है उसने उपभोक्ताओं की एक बड़ी खेप को इन स्टोर्स से खरीददारी करने के लिये आकर्शित किया है। और इसी से पैदा हुआ है चोरी का डर जिसने सर्विलेंस और हिडन कैमरे जैसे कन्सेप्ट की जरुरत को पैदा किया है।

लेकिन क्योंकि सारी चीजें इन स्टोर्स में व्यापार से जुड़ी हैं तो इन हिडन कैमरों ने व्यापार के एक विकृत रुप को सामने ला खड़ा किया है। लड़कियों के चेंजिंग रुम में कैमरे छुपाने के कई केस इस बीच सामने आये हैं। किस तरह से लड़के लड़कियों के साथ बिताये अपने अंतरंग पलों को जानबूझकर एमएमएस के जरिये दुनिया के सामने परोस देते हैं फिल्म इसकी भी पड़ताल करती है।

हांलाकि ये जीजें सामाजिक तानेबाने पर अविश्वास जैसी स्थिति के पनपने के गम्भीर खतरे को भी पैदा करती हैं। क्योंकि ये जरुरी नहीं है कि सेक्स के पीछे की भावना हमेशा इतनी सस्ती ही हो। लेकिन यह सस्तापन शहरी युवाओं के भीतर नीचे गिरने की किस हद तक पैठ बनाये हुआ है फिल्म इस ओर आगाह करने की कोशिश करती है। इस कोशिश में ये खतरा जरुर पैदा होता है कि लोग फिल्म को चीप मान लें।

लेकिन जिस चीपनेस को वह सामने लाती है असल में हमें उसके प्रति सचेत होनी की जरुरत है और फिल्म इस जरुरत का अहसास दिलाने में अहम भूमिका निभाती है। प्यार जैसी भावना को यूज करने की प्रवृत्ति आज के युवाओं में कितनी हावी हो गई गई है फिल्म को देखकर महसूस किया जा सकता है।


लव, सेक्स और धोखा फ़िल्म की तीसरी कहानी

फिल्म की तीसरी कहानी में न्यूज मीडिया के स्टिंग औपरेशन और फिल्म इन्डस्ट्री में होने वाले कास्टिंग काउच दोनों को फिल्म सवालों के घेरे में खड़ा करती है। एक म्यूजिक वीडियो डाईरेक्टर के चंगुल में फंसी डांसर मृगनयनी की जान बचाने के बाद कैसे एक पत्रकार उसके साथ मिलकर उस डाईरेक्टर का स्टिंग औपरेशन करवाता है। ये इस तीसरी कहानी में दिखाया गया है।

फिल्म के इस हिस्से में न्यूज मीडिया में किस तरह से सेक्स स्कैंडल्स को भुनाया जाता है इस बात की पड़ताल की गई है। और इसके चलते एक पत्रकार को अपने मूल्यों के साथ कैसे समझौता करना पड़ता है। मूल्य बचाने के चक्कर में वह यूजलेस ही मान लिया जाता है, उसे न्यूज मीडिया के मौजूदा वातावरण में इन मूल्यों को बचाये रखने में कितनी मुश्किलें होती हैं।

कैसे फिल्म इन्डस्ट्री में लड़कियां अपने शरीर के रास्ते सोहरत तक पहुंचने की कोशिश करती हैं। और कैसे उन्हें यूज कर लिया जाता है। फिल्म इन सारे सवालों की तहों को दिखाती है।


दिबाकर बनर्जी की प्रयोगधर्मी फ़िल्म

तकनीक के तौर पर दिबाकर की ये फिल्म बौलीवुड के सारे सैट पैटर्न तोड़ती है। इस तरह ये पूरी तरह एक प्रयोग है। लेकिन सवाल ये है कि भारतीय दर्शक इस प्रयोगधर्मिता को कितना अपना पायेंगे। क्या उन्हें ये प्रयोग अच्छा लगेगा। फिल्म देखते हुए लगता है कि इससे वो लोग ज्यादा जुड़ाव महसूस करेंगे जो कैमरे को थोड़ा बहुत भी समझते हैं।

स्क्रीन पर दर्शक रिर्कौडिंग के टाईमकोड को देख रहा होता है। नाईटमोड और लो लाईट जैसे संकेत कैमरे पर जैसे आते हैं वैसे वो स्क्रीन पर देख रहा होता है। कैमरा आड़ा तिरछा होता है तो स्क्रीन पर दिख रही चीजें भी उसी तरह दिखने लगती हैं। आड़ी तिरछी सी। आउट औफ फोकस से फोकस होते चेहरे, स्क्रीन पर कभी पानी तो कभी खून की बूंदें और कभी ब्लू स्क्रीन और कलर बार।

हैंडीकैम के इस दौर में ज्यादातर लोग कैमरे की इस बेसिक टैक्नोलौजी से वाकिफ ही होंगे ये मान लिया जाय तो फिल्म को दर्शक तकनीक के तौर पर भी अपना लेंगे ऐसा माना जा सकता है। हांलाकि ऐसा मानना एक रिस्क ही है। क्योंकि हो सकता है ये तकनीकी डिस्टर्बेंस आम दर्शक पसंद ना करे। इसीलिये फिल्म पसंद के स्तर पर यूनिवर्सल तो कतई नहीं जा सकती।

दिल्ली के कैरेक्टर उभारती फ़िल्म

दिबाकर दिल्ली से जिस तरह के कैरैक्टर उभारकर लाते हैं वो रोचक होते हैं। वो इस शहर की बोलचाल की भाषा को अपने पात्रों के जरिये ऐसे कहलवाते हैं कि लगता है कि ये कैरेक्टर बिल्कुल हमारे आस पास के हैं। उनमें हमारे आसपास के लोगों की झलक देखने को मिल जाती है।

इससे पहले ओये लकी लकी ओये और खेसला का घोंसला में भी दिबाकर ने दिल्ली की भाषा के जरिये अपने फिल्म के चरित्रों को उकेरा जिसे दर्शकों ने पसंद किया। फिल्म की खास बात है कि सारे चेहरे दर्शकों के लिये नये हैं। श्रुति, आदर्श, नैना, लोकी लोकल सभी के कैरेक्टर, उनके एक्सेंट और लोकल टच की वजह से यूनिक नजर आते हैं। डिपार्टमेंटल स्टोर में काम करने वाला गार्ड जो कि फिल्म का मुख्य पात्र नहीं है अपने एक्सेंट की वजह से याद रह जाता है।

इनमें से कोई पात्र हीरोईक नहीं है। वो पात्र हमारे आसपास का ही कोई चेहरा लगता है जिसे या जिस जैसा शायद हमने कभी देखा हो । दरअसल पूरी फिल्म देखते हुए ये कहीं लगता ही नहीं कि हम सच नहीं देख रहे पर अफसोस इसी बात का है कि लव, सेक्स और धोखा (love, sex aur dhokha movie) आज के युवा भारत का ईमानदार सच है।

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