Last Updated on: 18th July 2025, 01:48 pm
अनुराग बासू निर्देशित ‘मेट्रो इन दिनों’ (Metro In Dinon by Anurag Basu) एक एंथोलॉजी ड्रामा फ़िल्म है जिसमें दर्शकों को देश के चार मेट्रो शहरों – पुणे, दिल्ली, कोलकाता और बेंगलुरु की कहानियाँ देखने को मिलती हैं। कहानियाँ अलग–अलग शहरों की भले हों लेकिन किसी तरह ये कहानियाँ आपस में जुड़ी हुई हैं।
ये शहरों की चकाचौंध के बीच संघर्ष करते लोगों के ख़ालीपन की कहानियाँ हैं। कहानियों के कुछ क़िरदार युवा हैं तो कुछ अधेड़ और बुजुर्ग हैं और सबकी अपनी–अपनी दुखती रग है जिस पर अनुराग बासू अपनी नज़र रख देते हैं।
क्या है फ़िल्म की मेट्रो इन दिनों की कहानी (Story of Film Metro in Dino)
फ़िल्म की शुरुआत अलग–अलग किरदारों के परिचय से होती है जिसे म्यूज़िकल अंदाज़ में पेश किया गया है। यह एक प्रयोग ज़रूर है लेकिन क़रीब ढाई घंटे की इस फ़िल्म का एक अच्छा–हिस्सा हिस्सा इस प्रयोग के हवाले हो जाता है। राइम करने के चक्कर में जो टाइम चला जाता है उसे फ़िल्म की कहानियों की गहराई में उतरने में लगाया जाता तो फ़िल्म शायद और बेहतर हो जाती।
मेट्रो इन दिनों फ़िल्म की पाँच कहानियों में से पहली है दिल्ली के परथ (Aditya Roy Kapur) और चुमकी (Sara Ali Khan) की। चुमकी एक शहरी जवान लड़की है जो अपनी नौकरी में उलजी है, जिसका बॉस उसे दफ़्तर में गाहे–बगाहे मॉलेस्ट करता रहता है और वो कुछ नहीं कर पाती क्योंकि नौकरी का सवाल है। उसका फ़ीओंसे (Rohan Gurbaxani) भी उसी दफ़्तर में उसका सहकर्मी है। लेकिन वह इतनी शिद्दत से अपना प्रमोशन चाहता है कि वह अपनी होने वाली पत्नी के लिए आवाज़ उठाने की ज़हमत नहीं उठा पाता।
तो चुमकी फ़िलहाल दो मोर्चों पर साफ़तौर पर हाँ और ना के कन्फ़्यूज़न में है और एक लड़का (परथ) जो होते–होते उसका अच्छा दोस्त हो गया है वहाँ संभावना इसलिए नहीं है क्योंकि वो एक ‘कमिटमेंट फ़ोबिक मैन चाइल्ड’ है। अंदर थर्टीज़ के रिश्तों की एक टिपिकल रिलेशनशिप क्राइसिस और कन्फ़्यूज़न पूरी फ़िल्म भर चलती रहती है और फ़िल्म के ख़त्म होने तक एक बेहद नाटकीय मोड़ ले लेती है।
दूसरी कहानी बेंगलुरु के श्रुति (Fatima Sana Shekh) और आकाश ( Ali Fazal) की है जिनका रिश्ता नौकरी और पैशन के पशोपेश में फँसा हुआ है। कॉरपोरेट में अच्छी सैलरी पर नौकरी करता आकाश अब नौकरी छोड़कर अपना पैशन फ़ॉलो करना चाहता है। श्रुति, आकाश की नौकरी के लिए पहले ही अपना ‘कैरियर सेक्रिफ़ाइस’ कर चुकी है लेकिन आकाश को अब अपने सिंगिंग के पैशन को फ़ॉलो करना है, तो ज़ाहिर है किसी एक को नौकरी करनी होगी।
आकाश के लिए श्रुति एक बार फिर नौकरी करने का फैसला करती है और दिल्ली आ जाती है। डाइरेक्टर्स के पीछे भागते–भागते स्ट्रगल करता आकाश थक जाता है और एक ‘अच्छे ऑफ़र’ के लिए नौकरी करने की सोचने लगता है। ज़ाहिर है श्रुति इससे नाराज़ है। इस नाराज़गी और असंतोष के बीच कुछ नए रिश्तों की आहट और कुछ पुराने रिश्तों की सुगबुगाहट तनाव और शक लेकर आते हैं। इस पर श्रुति प्रेग्नेंट हो जाती है और आकाश को बताती नहीं। सब मिलकर एक ऐसा चक्रव्यूह बना देते हैं जिसमें एक नहीं बल्कि कई रिश्ते उलझ जाते हैं।
तीसरी कहानी है काजोल ( Konkona Sen Sharma) और माँटी (Pankaj Tripathi) की जिनका रिश्ता एक मिडिल एज क्राइसिस से गुज़र रहा है। कई वर्षों की शादी के बाद रिश्तों नदी में बोरियत की एक नाव चल रही है। एकदम बेमन और हौले–हौले से। इस नाव को एक राफ़्ट बनाकर किसी रैपिड की ओर बढ़ जाने को बेताब रिश्तों की जद्दोजहद इस कहानी में दिखती है। रिश्ते के बाहर ‘अगर तुमने कुछ किया तो मैं भी करूँगी’ की मनसा बातों बातों में डेटिंग ऐप के सहारे एक अलग ही मोड़ ले लेती है।
चौथी कहानी परिमल (Anupam Kher) और झिनुक ( Darshana Banik) नाम के एक बूढ़े पिता और एक जवान पुत्री के परिवार की है। जहाँ एक छोटे से घर में सिर्फ़ दो लोग हैं । एक–दूसरे के अकेलेपन को पूरा करने के चक्कर में लगातार और अधूरे होते जाते दो लोग।
पाँचवी और आँखरी कहानी शिबानी (Neena Gupta) और संजीव (Saswata Chatterjee) नाम के एक उम्रदराज़ युगल की है जो पुरानी पीढ़ियों के एक आम भारतीय दांपत्य जीवन की झलक पेश करती है। एक–दूसरे से न जाने कब से नाराज़ पति–पत्नी जिनके मन में किसी पुरानी टीस के ज़ख़्म लगातार गहरे होते चले जाते हैं। वहाँ पुराने समय की ग़लतियों बाँध है जो टूटा तो बाढ़ आ जाएगी।
उसी बाढ़ से होने वाली तबाही से बचने के लिए मन मसोसकर रिश्ता आगे बढ़ रहा है। एम माँ जिसने अपना जीवन पहले पति और फिर परिवार को दे दिया। उसकी इतनी भी नहीं चलती कि वो अपने कॉलेज की रीयूनियन में अकेले जा सके। ‘आजतक घर से अकेले कभी नहीं निकली’ देश की न जाने कितनी महिलाओं की कहानी है ये।
रिश्तों के अधूरेपन की ये कहानियाँ क्यों अधूरी रह जाती हैं
दो घंटे पच्चीस मिनट की अवधि में से एक लंबा अंतराल प्रीतम के संगीत और संगीतमय शैली में तैयार किए गए तुकांत संवादों में निकल जाता है जिसका कोई ख़ास तुक लगता नहीं है। इस राइमिंग के चक्कर में एक गहरी संभावनाओं वाली फ़िल्म थोड़ा सतही और उथली सी लगने लगती है। हालाँकि प्रीतम, पापोन और राघव चैतन्य का संगीत इन बिखरी हुई कहानियों को कई जगह जोड़ता भी है और फ़िल्म को एक रोमेंटिक फ़ील भी देता है। साथ ही, स्टाइलिश कैमरा एंगल्स और फास्ट कटिंग वाली एडिटिंग फ़िल्म को बचा ले जाती है।
ढाई घंटे में कही गई पाँच कहानियों के इस घालमेल में एक मौका ऐसा आता है जब लगता है फ़िल्म ज़बरदस्ती खिंच रही है लेकिन फिर कहानियों के किरदार एक–दूसरे से जिस तरह से जुड़ते हैं उससे एक दर्शक के तौर पर आपकी रुचि दुबारा फ़िल्म में लौट आती है। बहुत कुछ कहने के चक्कर में जो कुछ कहना छूट जाता वही फ़िल्म की कमज़ोरी बनता है।
मेट्रो शहरों में रहने वाले और वहाँ की जीवन शैली में पले–बढ़े लोग फ़िल्म में अपना आईना ज़रूर देख पाएंगे। अनुराग बासू ने हर उम्र वर्ग के लिए आईने बनाए हैं। पहले आप एक आईने में एक कहानी का प्रतिबिंब देखते हैं, फिर आईना घूमता है तो उसमें दूसरे आईने और उनपर दिखने वाले प्रतिबिंब भी नज़र आने लगते हैं। ऐसा होने से फ़िल्म एकदम चमकदार नज़र आने लगती है लेकिन उस चमक में छिपे अँधेरे की और गहरी पड़ताल आप फ़िल्म देखकर नहीं कर पाते। ऐसा मैं क्यों कह रहा हूँ वो आप फ़िल्म देखकर ही समझ पाएँगे।
मझे हुए कलाकार और प्रयोगधर्मी निर्देशक का मेल
अनुराग बासु अपनी फ़िल्म के स्ट्रक्चर में हमेशा नए प्रयोग करते दिखाई देते हैं। चाहे वो बर्फ़ी हो, जग्गा जासूस हो या लूडो, उनके कहानी कहने के तरीके में जो नयापन है वो एक फ़िल्मकार के तौर पर उन्हें ख़ास बनाता है। अच्छी बात यह है कि हर नए प्रयोग के लिए उनके पास मझे हुए कलाकार होते हैं।
इस फ़िल्म में भी एक बूढ़े बेबस पिता के तौर पर अनुपम खेर हों या एक फिर बोर हो चुके पति के तौर पर पंकज त्रिपाठी, अपने उम्रदराज़ पति की तथाकथित ‘इंफ़िडेलिटी’ से नाराज़ होकर एक युवा लड़के के साथ रोमांस करती कोंकणा सेन हों या फिर घर के बंधनों से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर अपने पुराने दोस्त की मदद के लिए एक नाटक का पात्र बन जाती नीना गुप्ता, सबने बेहतरीन अभिनय किया है।
फ़ातिमा सना शेख और अली फ़ज़ल की केमिस्ट्री में थोड़ी कसर सी रहती ज़रूर लगती है। आदित्य रॉय कपूर अपनी सीमाओं में अपने क़िरदार अच्छे से निभाते हैं। हालांकि सारा अली ख़ान के अभिनय में वो गहराई नहीं आ पाती कि मेट्रो की एक आम भारतीय लड़की उनसे ख़ुद को जोड़कर देख पाए।
अनुराग बासू, सम्राट चक्रबर्ती और संदीप श्रीवास्तव के लिखे डायलॉग शहरी मध्यवर्गीय लोगों के लिहाज़ से काफ़ी रिलेटेबल से लगते हैं। ऐप्स, वीडियो कॉल जैसी मौजूदा तकनीकों को बड़े ही स्टाइलिश अंदाज़ में फ़िल्म की कहानियों में पिरोया गया है। शहरों के बीच दौड़ती मेट्रो के दृश्य से अलग-अलग कहानियों के सिरे जोड़ने की कोशिश भी फ़िल्म में लगातार चलती रहती है। हालांकि गाकर अपनी प्रेम कहानी बताने या ऐन शादी के दिन बारात की बोगी में जाकर अपने प्यार का अंतिम इज़हार करने के दृश्य कुछ ज़्यादा ही नाटकीय से लगते हैं।
भले फ़िल्म ‘आजकल के प्यार’ की तरह हो जो ‘चीज़ चाइनीज़ शेज़वान मसाला डोसा’ हो गई हो लेकिन इस डोसे में स्वाद की कमी नहीं है। ‘सितारे ज़मीन पर’ के बाद ‘मेट्रो इन दिनों’ भी लोगों को थियेटर की तरफ़ लौटाने में क़ामयाब होती लग रही है।
एक बार पूरी देखने लायक यह फ़िल्म ज़रूर है चाहें तो आप थियेटर में देख लें वरना ओटीटी प्लेटफॉर्म्स में एक ‘सेकंड चांस’ तो बनता है।