Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm
मुम्बई फिल्म फेस्टिवल के छटे दिन फेसबुक पर फेस्टिवल के पेज से जानकारी मिली कि मुम्बई डाईमेन्शन कैटेगरी के अन्दर आने वाली 25 शॉर्ट फिल्म्स का प्रदर्शन एक बार फिर किया जा रहा है। मुम्बई डाईमेन्शन की पहली स्की्रनिंग छूट जाने का बहुत मलाल हुआ था। इसलिये इस स्क्रीनिंग को किसी भी हाल में न छोड़ने का मन बना लिया था। मैने फेसबुक पर पढ़ा था कि दिन के एक बजकर तीस मिनट पर फिल्म गोदरेज थियेटर में स्क्रीन होगी। पूरे फेस्टिवल का एक यही वैन्यू बचा था जिसमें हो रही स्क्रीनिंग में अब तक शामिल नहीं हुआ जा सका था। इसलिये खुशी हुई कि आज ये आंखिरी वैन्यू भी देख लिया जाएगा।
फेस्टिवल के बहाने मुम्बई के उन सारे सिनेमाहौल्स में फिल्में देखने का ये सुनहरा मौका हाथ लगा था जिनमें शायद कभी जाना भी होता या नहीं। खैर आज फिर वक्त बिल्कुल सर पर नाच रहा था। टेन फिर टैक्सी और फिर गोदरेज थियेटर। वहां पहुचकर जो देखा उसे देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। एक बजकर 20 मिनट हो चुके थे पर वो हौल लगभग खाली था और वहां पहले से कोई और ही फिलम चल रही थी।
जल्दी से थियेटर से बाहर आकर फेस्टिवल के वौलेन्टियर्स से पूछा तो उन्होंने बताया कि मुम्बई डाईमेन्शन तो एनसीपीए के जमशेद बावा थियेटर में स्क्रीन होगी। वक्त बहुत कम बचा था। तुरंत टैक्सी की और फिर किसी तरह भागते दौड़ते एनसीपीए। पांच मिनट लेट ही सही हौल में दाखिल हुआ। तब तक एक फिल्म छूट चुकी थी। खैर खुशी की बात ये थे कि अभी 24 फिल्में शेष थी।
यहां हॉल में कुछ वैसा ही माहौल था जैसा पुणे के फिल्म इंस्टिट्यूट में फिल्म देखते हुए होता है। फिल्में देखने वाले ज्यादातर लोग स्टूडैन्ट सरीखे नज़र आ रहे थे। इसीलिये फिल्मों के बाद उसी तरह हूटिंग हो रही थी और अच्छी फिल्मों के बाद उसी उत्साह से तालियां भी बज रही थी। यहां फिल्मों के भविष्य का वर्तमान अपनी सिनेमाई समझ का प्रदर्शन कर रहा था। इसीलिये ये फिल्में अपने सबसे करीब महसूस हो रही थी।
इन फिल्मों की अच्छी बात ये थी कि इनमें पूरी मासूमियत थी। क्यूंकि ये फिल्में लगभग ना के बराबर बज़ट में बनी फिल्में थी इसीलिये इनमें तकनीकी दिखावा नहीं था। बेहद कम समय और कम संसाधनों में अपने ज्यादा से ज्यादा सिनेमाई ज्ञान को प्रदर्शित करती ये फिल्में सम्भावना जगाती फिल्में थी। पे्ररणा देती फिल्में थी। और उससे भी बढ़कर सिनेमा के माध्यम से अपने परिवेश को समझने की कोशिश करती फिल्में थी।
इन फिल्मों में मुम्बई के भीतरखानों की अच्छी झलकें देखने को मिली। मुम्बई डाईमेन्शन कैटेगरी की एक शौर्ट फिल्म लोकल दिखाती है कि कैसे लोकल ट्रेन के तेज़ शोर को नई नई शादी करके चैल में रहने आये पति पत्नी अन्तरंग लमहे बिताने के लिये एक टूल की तरह प्रयोग करते हैं। मुम्बई में रहने वाले लोग परिस्थितियों से किस हद तक खुशी खुशी सामंजस्य बैठा लेते हैं, कैसे सिमटी हुई, शोर भरी गलियों के भीतर भी मुस्कुराहटें सहेज के रख लेते हैं मुम्बई वाले, लोकल नाम की ये शौर्ट फिल्म बहुत ही कम संवादों में ये बात बहुत अच्छे से बयां कर जाती है ।
सिनेजगत के पात्रों को तरह तरह के परिधानों से अलग रंग रुप देने वाले ड्रेसवालाज़ पर एक छोटी सी डौक्यूमेंट्री फिल्म ड्रेसवाला भी एक अच्छा प्रयास लगती है। फिल्म में डेसवालाज़ के मालिक एक बेहद बुजुर्ग शख्स जब बड़े ही अन्दाज़ से तख्लिया कहते हैं, तो उस लमहे को कैप्चर कर लेने के लिये फिल्म के निर्देशक को बधाई देने का मन होता है।
नरेशन के टूल को बहुत अच्छे से प्रयोग करने वाली एक फिल्म दो रुपये का पैन भी एक अच्छा प्रयास लगती है।
केवल पंक्तियों से बनाये ग्रांफिक के माध्यम से पूरे मुम्बई की झलकी दे देने वाली फिल्म मुम्बई ज्योमेट्री भी एक अलग अप्रोच के कारण याद रह जाती है।
इसके अलावा आंखों देखा हाल, आठ आना, बौम्बे कुल्फी, नुम्बई, बीएसएन यानी बालू शिखा की नैनो लव स्टोरी जैसी कुछ और फिल्में हैं जो ज़हन में बनी रहती हैं।
इन पच्चीस लघु फिल्मों को देख लेने के बाद मुम्बई के लिये प्यार थोड़ा और बढ़ गया। सिनेमा के लिये प्यार तो खैर बढ़ना ही था।
आखिरी दिन पुरस्कारों का दिन था। इन्डिया गोल्ड के तहत मिस लव्ली को बेस्ट फिल्म का पुरुस्कार मिला तो बाहर से आई फिल्मों में हेयर एंड देयर को सर्वस्रेष्ठ फिल्म चुना गया। मुम्बई डाईमेन्शन के तरह भरत सिंह पवार की फिल्म लोकल को सर्वस्रेष्ठ फिल्म के पुरस्कार से नवाज़ा गया। वहीदा रहमान को लाइफ टाइम अचिएवेमेंट देकर सम्मानित किया गया. खैर दर्शकों के लिए तो फिल्में देखना ही पुरस्कार मिलने जेसा था.
ये सात दिन बहुत जल्दी गुजर गये। इन सात दिनों की भागदौड़, एक्ज़ाम्स के टाईम टेबल की याद दिलाता फेस्टिवल की फिल्मों का शैडयूल, कभी बिल्कुल खाली तो कभी पूरी तरह से भरे थियेटर और सामने स्क्रीन पर चुनी हुई फिल्में देखने का मौका। ये सब कुछ याद करना अगले मुम्बई फिल्म फेस्टिवल के आने तक अच्छा ही लगेगा।
अच्छा हो कि ऐसे फिल्म फेस्टिवल हर चार पांच महीने में होते रहें ताकि विश्व सिनेमा के साथ साथ अपने देश के रीज़नल सिनेमा को भी दर्शकों तक अच्छी तादात में पहुंचाया जा सके। वो फिल्में भी थियेटर तक पहुंच सकें जो अच्छी होने के बावजूद आर्थिक कारणों से रिलीज़ नहीं हो पाती। ताकि फिल्म से जुड़े लोगों को बेहतर फिल्में देखने को मिलें जिससे बेहतर फिल्में बनाने की प्रेरणा मिलती रहे।