लाशों से कफन बीनने वालों पर बनी फिल्म को नैशनल अवार्ड

Chindren of pyre film

Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm

जामिया के मासकम्यूनिकेशन रिसर्च सेन्टर में साउन्ड के लेक्चरार मतीन अहमद को फिल्म चिल्ड्रन आफ पायर की साउन्ड डिजाइनिंग के लिये इस बार का नैशनल अवार्ड दिया जा रहा है। 

बनारस में मरघटों पर जलती हुई लाशों से कफन बीनने वाले बच्चों की कहानी

ये फिल्म वाराणसी के उन 6 बच्चों की कहानी है जो मरघटों पर जलती हुई लाशों पर लिपटे हुए कफन बीनते हैं। कफन बीनकर या कभी कभी चुरा और छीनकर अपनी जिन्दगी जीने वाले इन बच्चों का जीवन कैसे बसर होता है चिल्ड्रन आफ पायर इसे मार्मिक तरीके से दिखाती है।

ये वो बच्चे हैं जो चाहते हैं कि लोग जल्द से जल्द मर जांयें ताकि उनकी मौत से इन्हें जीने की वजह मिल पाये। इस अजीब सी विडम्बना से जूझते इन बच्चों को आपस में लडते, गालियां करते, कफन पर झपटते, लावे सी आग में लगभग झुलसता सा देखते लगता है कि चिताओं के दई गिर्द केवल मरे हुए लोगों की लाशें ही नहीं हैं बल्कि इन बच्चों के कई बचपन भी हैं जिनकी मौत कई कई बार होती है। फर्क इतना सा है कि चिता में जलती लाशें कुछ देर में खाक हो जाती हैं पर बचपन की ये लाशें जिन्दा रहती हैं उनकी गरीबी पर व्यंग करती सी।


साउंड डिज़ाइन के लिए मिला नैशनल अवार्ड

इस फिल्म में साउन्ड की एक खास भूमिका है। एमसीआरसी में मतीन सर के छात्र रोहित वत्स फिल्म की साउन्ड पर बारीकी से बताते हैं कि जलती हुई लाशों की आवाज को औन द स्पाट जिस तरह से इस फिल्म में रिकौर्ड किया गया है वो कमाल है। भीडभड के दश्यों में बच्चों की धीमी आवाज भी बिल्कुल स्पष्ठ सुनाई पडती है। फिल्म में साउन्ड का उतार चढाव बडा लयात्मक है। कुछ दश्यों में शोर शराबे के तुरन्त बाद एकदम सन्नाटा छा जाता है लेकिन इसके बावजूद कोई जर्क साउन्ड में मालूम नहीं पडता। फिल्म में कैमरा उतना क्लोज नहीं जाता जितनी साउन्ड चली जाती है। फिल्म की साउन्ड का सबसे उम्दा पक्ष यह है कि तेज हवा की तरफ माईक्स को प्लेस करने के बावजूद भी साउन्ड फेदफुली रिकौर्ड करने में मतीन सर कामयाब रहे हैं।


निर्देशक राजेश एस ज्याला को भी इस फिल्म के लिये स्पेश जूरी अवार्ड

मतीन अहमद के साथ ही फिल्म के निर्देशक राजेश एस ज्याला को भी इस फिल्म के लिये स्पेश जूरी अवार्ड से नवाजा गया है। गणतंत्र दिवस के मौके पर यह एक विडम्बना ही है कि ऐसी फिल्में तो सराही जा रही हैं जो लाशों पर जीने वाले मरते बचपन की नग्न सच्चाई को दिखा रही हैं पर उस सच्चाई से निजात दिलाने के प्रयास कम ही नजर आते हैं। खैर मतीन सर और फिल्म के निर्देशक और पूरी टीम को इस सच्चाई से वाकिफ कराने के लिये बधाई तो दी ही जानी चाहिये।

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