Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm
बीहड़ में बागी होते हैं… डकैत मिलते हैं पार्लामेन्ट में…. पान सिंह तोमर का ये डायलौग फेसबुक की दीवारों पे बहुत दिनों से छाया हुआ था…. तिग्मांशू धूलिया की हासिल देखने के बाद उनकी इस फिल्म से उम्मीदें महीनों पहले से बांध ली थी… आज पवई आईआईटी के पड़ौसी बिग सिनेमा के थियेटर में फिल्म देखने के बाद लगा जैसे कोई साध पूरी हो गई।
एक बागी के लिये इतना सम्मान, और अपने सिनेमा के लिये इतना प्यार, इतना दुलार, बड़े अरसे बाद आया… फिल्म शुरु होने से ठीक पहले परदे पर कुछ बच्चों के इशारों से देश के सम्मान के प्रतीक राष्टगान को फिल्म के भावी दर्शक जिस तन्मयता से सुन रहे थे ठीक वही भावना फिल्म के बाद पता नहीं क्या होने के लिये रुके एंड क्रेडिट को भरपूर निहारते दर्शकों के भीतर महसूस हो रही थी… आज बहुत समय बाद किसी फिल्म के लिये आडियेन्स बिहेवियर को देखकर लगा कि फिल्म का आफ्टर इफैक्ट सचमुच कोई चीज़ होती है… कैसे.. लोग मानना ही नहीं चाहते कि फिल्म पूरी हो गई है… चीजें जैसे स्लोमोशन में होने लगती हैं… लोग कुछ देर के लिये फिल्म में दिखाई गई दुनिया से बाहर आना ही नहीं चाहते…. फिल्म देखते हुए वो कुछ घंटों के लिये फिल्म में ही कहीं छुपा हुआ पात्र हो जाते हैं… पान सिंह तोमर को देखने के बाद यही सब होता देख अच्छा लगता है…
हौल से निकलती भीड़ के बीच एक पत्नी अपने पति से कहती है… इस फिल्म को डाउनलोड ज़रुर कर लेना… खुद में खोया एक लड़का अचानक बोल पड़ता है… पान सिंह तोमर… फिर कहीं खो जाता है… शायद चम्बल की उस दुनिया में ही जहां बीहड़ है….बागी हैं…… कार में लौटते हुए जीजाजी फिल्म में सुनी लिंगों को अपनी ज़बान पे ले आते हैं… और ये सब देख के मैं सोचता हूं… पान सिंह तोमर, इरफान खान और तिग्मांशु धूलिया बस अभी अभी जो सिनेमाई कमाल कर गये हैं…..ठीक उसी टक्कर का अब कौन देगो जवाब …
पान सिंह तोमर में यकीनन मैलोड्रामाटिक मूमेंट बहुत सारे हैं… छुटटी पर आये एक फौजी का पत्नी के नजदीक आने के लिये बच्चों को लैमनचूस लेने दूर वाली दुकान पे भेजना, मां की गाली देने पर उस फौजी का अपने कोच को टोकना, अपने औफीसर से कहना कि वो अपने सारे अफसरों के आदेश इसलिये नहीं मान सकता क्योंकि वो इस लायक नहीं हैं, एक खिलाड़ी होने के नाते जंग में न जाने देने पर अपने गुस्से को भट्टी में झोंकना, भैंसे पर बैठे एक सिर मुंडाये लड़के को बागियों की सेना का यमराज समझ लेना, अपने भाई के मर जाने के बाद मां की चूडि़यों को यादकर उसकी लाश से पूछना कि कौन देगो जवाब, या फिर अंत में एक बागी का गोलियां लग जाने के बाद मौत से ठीक पहले खेल का मैदान, दर्शकों की तालियां, और अपनी पत्नी की झलकियां देखना, ये सबकुछ कई हद तक बहुत इमोश्नल या मैलोड्रामाटिक जरुर लगता है, पर फिल्म की एक लयात्मक गति में अपनी अपनी जगह पर ये सब कुछ फिट सा बैठ जाता है…. फिल्म का सुर इससे कहीं नहीं बिगड़ता… ये सब कहीं ओवर द टौप नहीं लगता…
फिल्म की पूरी कहानी इतनी सरलता से बहती है कि कोई झोल नज़र नहीं आता….वर्ड सिनेमा का एक्सपोज़र अक्सर अपनी फिल्मों से उन्हें कम्पेयर करने पर मजबूर करता है और आंकने पर ज्यादातर अपनी फिल्में कमज़ोर नज़र आती हैं… पर इस फिल्म को देखते हुए वो कमजोरी नज़र नहीं आती… फिल्म अपने वक्त के बहुत करीब खड़ी नज़र आती है…. कहीं नकली या बनावटी नहीं लगती… किरदारों के व्यवहार और भाषा दोनों ही कहानी में अपनी जगह बनाये रखते हैं…कहीं कोई मिसमैच नहीं लगता…
फिल्म देखने से ठीक पहले मोहल्ला लाईव पर फिल्म के पटकथा लेखक संजय चैहान की कही बात पढ़ी थी कि माही गिल को बुंदेलखंडी भाषा सीखने में कुछ दिक्कत हुई थी लेकिन फिल्म में उनका मेकअप और उनकी संवाद अदायगी दोनों से ही वो चंबल की घाटी की ही कोई असल औरत लगती हैं…
इरफान खान तो खैर इस फिल्म के बाद अपनी बेहतरीन अदायगी के कुछ और पायदान चढ़ ही गये हैं… बौलिवुड के साथ साथ वर्ड सिनेमा में भी उनकी अपनी अलग पहचान बन ही चुकी है…. उनकी सबसे अच्छी बात यही है कि वो किसी भी फिल्म में स्टार नहीं होते, वो हर फिल्म में अपने साधारण से व्यक्तित्व को उनको मिले किरदार में उतने ही साधारण तरीके से ढ़ाल लेते हैं…. पान सिंह तोमर जो थोड़ा नादान भी है, झुकता भी है, शरारत भी करता है, जज्बाती भी है, और जब दौड़ता है तो फिनिशिंग लाईन तक पहुंचने का लक्ष्य लेकर… इस बात की परवाह किये बिना कि नम्बर कौन सा आयेगा… धावक, प्रेमी, फौजी, बागी, पिता, और लीडर हर रुप में खुद को ढ़ाल लेने वाले एक साधारण से इन्सान के बहुआयामी किरदार में इरफान हर एंगल से फिट लगते हैं….
दोस्तों के साथ तहलका के लिये एक इन्टरव्यू के दौरान वर्सोवा के पास तिग्मांशू धूलिया के आफिस जाना हुआ तो तब पहली बार तिग्मांशू को सुना था… तब शायद साहब बीवी और गैंग्स्टर पर काम चल रहा था… एक पार्क की बैंच पे बैठे तिग्मांशू अपनी फिल्मी यात्रा पर बहुत कुछ बोल रहे थे… पर उन बातों ने उतना प्रभावित सा नहीं किया तब… पर ये ज़रुर लगा कि ये आदमी ईमानदार तो है….लेकिन वहां से लौटकर हासिल देखी तो उस आदमी के लिये इज्जत कुछ बढ़ गई… और अब पान सिंह तोमर देखकर लग रहा है तिग्मांशू धूलिया मौजूदा समय के ऐसे चंद निर्देशकों में से एक हैं जिनकी फिल्मी कहानियों में अपनी मिट्टी की महक है, जिसके किरदार गिमिक पैदा नहीं करते… जिनकी फिल्मों को रौकस्टार जैसी फिल्मों की तरह एक फैशनेबल स्टार और बेहतरीन म्यूजिक की बैसाखी की ज़रुरत नहीं पड़ती…. जिनकी कहानियों और किरदारों में वो ईमानदारी है कि हर आदमी उससे रिलेट कर पाता है… शायद वैसा ही कोई किरदार हर किसी ने कभी न कभी अपने आस पास देखा होता है, वैसी ही कोई कहानी उस किरदार से सुनी होती है… तिग्मांशू उसे समेटकर बस फिल्म के रुप में सहेज लाते हैं…
पान सिंह तोमर अपनी उस व्यवस्था पर व्यंग्य भी करती है जिसमें योग्यता प्रभावशाली लोगों की अज्ञानता के बीच कहीं दब जाती है… एक आम इन्सान जो समाज और कानून के दायरे में रहकर काम करता है उसे कुचल दिया जाता है और वही इन्सान जब शक्ति का संतुलन अपने हाथों में ले लेता है तो उसे बागी घोषित कर दिया जाता है… फिल्म बागी और डकैत का अन्तर बताते हुए एक तर्कपूर्ण पौलिटिकल स्टेटमेंट रखती है और उसे पूरी तरह जस्टिफाई भी करती है…. इस दोषपूर्ण व्यवस्था में अपनी बात सुनाने और खुद को साबित करने के लिये या तो आपको डकैत हो जाना होगा या फिर डकैती का विरोध करता हुआ एक बागी बन जाना होगा…. बीच की स्थिति में आप हमेशा अस्तित्वहीन रहेंगे… इस तरह फिल्म एक फौल्टी सिस्टम के खिलाफ क्रान्ति के पक्ष में खड़ी नज़र आती है….
पिछले कुछ समय से निराश कर रहे अपने बालिवुड से पान सिंह तोमर ने एक बार फिर उम्मीदें बढ़ा दी हैं… शहर के मल्टीप्लैक्सों में गांवों के बीहड़ की बात करती फिल्में मौजूदा कमर्सियल सिनेमा में एक बागी की तरह ही नज़र आती हैं… पान सिंह तोमर जैसे ही और कई बागियों की हमारे सिने संसार को बहुत दरकार है….
वाह बहुत ही सुंदर विश्लेषण , उमेश जी । इस पिक्चर में इरफ़ान द्वारा कहे गए ये डायलाग पहले ही आकर्षित कर रहे हैं सबको । जरूर देखेंगे , वैसे भी इरफ़ान के अभिनय के कायल तो हम हैं ही । दिलचस्प पोस्ट
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Thank you
sach aaj aise hi kirdaay ki hamare rugn hote samaj ko sakht jarurat hai..
bahut badiya sarthak prastuti..