Last Updated on: 30th June 2025, 01:06 pm
पार्टी कल्चर से बहुत ज्यादा ताल्लुक ना होने के बावजूद इस पार्टी ने लुभा लिया। 1984 में आई गोविन्द निहिलानी की फिल्म पार्टी गर्मियों की पहाड़ी ठंडक का अहसास करते हुए देखी। फिल्म वर्तमान साहित्य जगत के पूरे गड़बड़झाले को उस दौर में भले ही कह गई हो पर आज भी सीन बाई सीन सच्चाई वही है। तल्ख ही सही।
पार्टी की कहानी एक पार्टी की तैयारियों से शुरु होती है। ये पार्टी प्रतिष्ठित साहित्यकारों की है जो एक साहित्यकार बरवे जी को राष्टीय पुरुस्कार दिये जाने पर आयोजित की जा रही है। पूरी फिल्म इसी पार्टी में उठे सवालों के इर्द गिर्द घूमती है। और कई सवाल पैदा करती है जो साहित्य के प्रस्तुतीकरण और उसके वास्तविक जीवन में प्रयोग के द्वंद्व की उलझी हुई सच्चाई का परत दर परत विश्लेष्ण करने के दौरान उपजते हैं। पार्टी में मौजूद सारे साहित्यकार बम्बई की हाई फाई सोसायटी के बीच रहकर अपने साहित्य सृजन में मशगूल रहते हैं। शराब और शबाब जिनके लिए साहित्यिक अवकाश है जिस पर चर्चा और विश्लेषण का जामा पहनाकर उसे जायज करार देना उसका स्वाभाविक व्यवहार है जैसा कि अक्सर आज भी हर प्रेस क्लब, हर साहित्य अकादमी और साहित्यिक गोष्ठियों में अमूमन होता है। इस पार्टी में साहित्य के सामाजिक सरोकारों पर कोरी चर्चा की जा रही है चर्चा के बीच कई अहम सवाल फिल्म में खड़े होते हैं। क्या किसी तरह के एक्टिविजम के बिना लिखा गया साहित्य चाहे वो समाज के किसी खास वर्ग की सच्चाई कहता ही हो, सामाजिक रुप से मान्य होना चाहिये, हो भी तो उसकी अहमियत है भी या नहीं। क्या एक साहित्यकार के समाज के प्रति कोई उत्तरदायित्व हैं भी। एसी कमरों में शराब के नशे में लिखापढ़ी करने वाले साहित्यकारों के शब्दों में भले जादुई चमत्कार क्यों ना हो उसकी समाज के लिए कितनी उपयोगिता है। फिल्म के एक दृश्य में बरवे साहब शराब के नशे में एक सच्चाई को बयान करते हैं। वो कहते हैं कि एक मैं बड़ा साहित्यकार इसी वजह से हूं क्योंकि मैने आगामी ट्रेंड को थोड़ा पहले समझ लिया और भारी भरकम शब्दों का प्रयोग कर उन्हें चालाकी से नये अन्दाज में ढ़ाल दिया। मैं बार बार इसी ट्रेंड की पुनरावृत्ति करता रहा। लेकिन हर बार नये अन्दाज में। लोगों को मेरी चालाकी समझ नही आई और मैं महान हो गया। बरवे साहब के द्वारा कही गई ये बातें आज साहित्यकारों की एक बड़ी जमात के लिए सही बैठती है। वे एसी कमरों में बैठकर दलितों की, दबे कुचले लोगों की बात कर देते हैं। उनकी योग्यता यही है कि वे शब्दों के जादूगर हैं। लोगों के साथ छल करना जानते हैं। उनके सामाजिक सरोकारों के खोखले दावे फिल्म देख लेने के बाद नग्न सच्चाई की तरह सामने आते हैं।
एक उदाहरण मेरे अपने अनुभव से है। देश के एक जाने-माने साहित्यकार जो जामिया मिल्लिया इस्लामिया के हिन्दी विभाग में कहने को पढ़ाते हैं। उनसे अगर पूछा जाये कि आपके लिए आपके साहित्य की ज्यादा अहमियत है कि आपके अपने व्यावसायिक जीवन की जिससे कई छात्रों का भविष्य सीधे जुड़ा है। एक साहित्यकार होने के नाते भले ही वो अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हों (सरकारी पैसे पर विदेश भ्रमण या फिर साहित्यिक गोष्ठिियों के बहाने देश भर का भ्रमण करके) लेकिन एक अध्यापक होने की जिम्मेदारी को वो कितना निभा पा रहे हैं या निभाना चाहते हैं? ये कोई जाकर उनसे पूछे। मुझसे पूछेगा तो मेरा जवाब बेहद नकारात्मक होगा जिसका आधार मेरा व्क्तिगत अनुभव ही है। पचास पचहत्तर हजार की तनख्वाह लेने के बावजूद साल भर में वो छात्रों का कितना भला कर पा रहे हैं यदि वो खुद से पूछेंगे तो निराश हुए बिना नहीं रह पायेंगे। यह उदाहरण साहित्यकारों की कोरी सामाजिक सरोकारों की बातों और अपने निजी जीवन में उन सरोकारों के कार्यान्वयन के बीच के खाई की तरह गहरे फासलों पर सवाल खड़ा करने के लिए मैं उठा रहा हूं न कि किसी की व्यक्तिगत छीछालेदर के उददेश्य से। लेकिन समाज से यह धोखा क्यों। पार्टी की मूल कथा इसी सवाल में अन्तर्निहित है।
फिल्म में अमृत एक प्रगतिशील सामाजिक कार्यकर्ता है जो कभी कवि था। लेकिन दलितों की दयनीय हालत को देखने के बाद उसने एक सक्रिय कार्यकर्ता होना एक कवि होने से बेहतर समझा। पूरी फिल्म अमृत के व्यक्तित्व को एक ओर खड़ा करती है जो असल मायने में ग्रासरुट पर जाकर दलितों की समस्या पर काम करते हुए मारा जाता है। और दूसरी ओर खड़ा करती है बम्बईया साहित्यकारों की लाबी को जो गुलछर्रे उड़ाते हुए साहित्य सृजन में मशगूल हैं। उनकी अपनी कुन्ठाएं हैं। अपनी हवस और व्यक्तिगत कमजोरिया हैं। शायद यही वजह कि वे कभी खुद से बाहर निकल ही नही पाये, खुद सरीखे खोखले लोगों के बीच ही खुद को सुरक्षित महसूस करते रहे। इस ब्लाग में संजीव ने साहित्य पर अपने लेख में साहित्यकारों के खुद रचो और अपने चहेतों से उसकी तारीफें करवा लो, वाले टेंªड पर बात की थी। फिल्म अमृत और बरवे लाबी को समानान्तर खड़ा कर देती है। और खुद ब खुद अमृत का पक्ष सामने वाले पक्ष को धराशाई करता नजर आता है।
मधुर भन्डारकर के पेज थ्री, कारपोरेट या फैशन की अवधारण सम्भवतह पार्टी के आविर्भव की ही देन है। हांलाकि पार्टी सिनेमेटोग्राफी के लिहाज से इन फिल्मों से जरा कमजोर दिखी है। लेकिन कसी हुई पटकथा इस अभाव को कम ही झलकने देती है। मोहिनी के रुप में रोहिनी हटटंगडे, अविनाश के रुप में ओम पुरी और अगाशे के रुप में आकाश खुराना के किरदार सबसे प्रभावशाली लगते हैं। अमरीश पुरी उतना प्रभावित नहीं करते। अन्तिम दृष्य में अमृत यानी नसीरुददीन शाह जब परदे पर आते हैं तो दहला देते हैं। दरअसल वो कोई व्यक्ति नहीं एक डर है जो अपने खोखलेपन के कारण बरवे जैसे साहित्यकार के भीतर आ बसा है क्योंकि अपनी सच्चाई वो अच्छी तरह जानता है। लहूलुहान नसीर का परदे पर आना बिन कहे इस डर को व्यक्त कर जाता है। पार्टी ऐसी फिल्म है जिसे आज की साहित्यिक लौबी कभी अकेले में सच्चे मन से देखेगी तो उनके भीतर एक लहूलुहान अमृत जरुर जागेगा जो आईना दिखायेगा उनको उनकी वास्तविकता का। दरअसल पार्टी एक डर है जो खोखलेपन के अनावृत हो जाने के बाद उपजता है। और हावी हो जाता है। प्रभुसत्ता खो जाने का डर। कुछ ऐसा छिन जाने का डर जिसके हकदार हम कभी थे ही नहीं।
I have seen this movie at DD-1 ….really a good movie.
I appriciate you …bus aise hi aur acchi acchi movies ke bare me batate rahe…
बहुत शुक्रिया